SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 520
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलोक का विभाग, लोक-स्वरूप, युग-परिवर्तन और चारों गतियों के जीवों की स्थिति का निरूपण होता है।' लोक का स्वरूप, स्थिति, भेद, स्वर्ग-नरक, द्वीप-समुद्र, क्षेत्रकुलाचल, पर्वत-नदी-सरोवर, देव-नारकी, मनुष्य-तिर्यंच, काल-परिवर्तन, नरक-स्वर्गपटल आदि का सांगोपांग-सविस्तार विवेचन जैन भूगोल का प्रमुख प्रतिपाद्य है। जैन-वाङ्मय में भूगोल- आचार्य श्री उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे-चौथे अध्याय में जैन भूगोल-खगोल का संक्षेप में प्रतिपादन है, जिसका विस्तार परवर्ती आचार्यों की टीकाओं में हुआ है। अन्य जैनाचार्यों ने भी जैन भूगोल प्रतिपादक स्वतन्त्र ग्रन्थों का सृजन किया है। इनमें आचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ती अति-महत्त्वपूर्ण एवं प्राचीनतम कृति है। सिद्धान्तचक्रवर्ती आ. श्री नेमिचन्द्रकृत त्रिलोकसार दूसरी अनुपम रचना है। इनके सिवाय लोकविभाग-(श्री सिंहसूरर्षिकृत), जंबूद्दीवपण्णत्ती-संगहो(श्री पद्मनंदिकृत), जंबूद्दीव-समास-(श्री उमास्वाति कृत), संघायणी-(श्री जिनभद्रकृत), जंबूद्दीव संघायणी-(श्री हरिभद्रकृत), शास्त्रसारसमुच्चय-त्रैलोक्य दर्पण (अभयनन्दी मुनि कृत), भुवनदीपक-(हेमप्रभसूरि कृत) तथा वृहत्क्षेत्र-समास, लोकविनिश्चय, सूरपण्णत्ति, चंदपण्णत्ति, जम्बूद्दीवपण्णत्ति, लोकस्थिति (संस्कृत) आदि अन्य जैनभूगोल-खगोल प्रतिपादक स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं। जैन पुराणकारों ने भी अपनीअपनी रचनाओं में लोक-विभाग, भूगोल-खगोल आदि का वर्णन प्रसंगानुसार यथास्थान किया है। त्रिलोकसार भाषा वचनिका (पं. श्री टोडरमल), श्री मोतीलाल सराफकृतजैनज्योतिर्लोक, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमति माताजीकृत 'त्रिलोक-भास्कर' हिन्दी की अन्य उपलब्ध रचनाएँ हैं। लोकविज्ञान विषयक ये जैन ग्रन्थ बड़े रोचक व ज्ञान-वर्धक हैं। ये जैन भूगोल-खगोल का याथातथ्य विश्लेषण करते हैं। परिचय देते हैं। ___ यहाँ प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक विकास में/मोक्षमार्ग की साधना में लोकविज्ञान को जानने की क्या आवश्यकता/उपयोगिता है? इसे हम क्यों जानें-समझें? ___ लोकविज्ञान की उपयोगिता-'तीर्थंकर' मासिक के सम्पादक डॉ. नेमिचन्द जैन ने अगस्त 1982 के अंक की सम्पादकीय 'लोककथा' में लिखा है-"यह लोक सारे द्रव्यों का संचरण मंच है, जिस पर यह जीव अनादिकाल से अनवरत अभिनय कर रहा है, पर उसे अपने पथ्य और मंच का थोड़ा भी ज्ञान नहीं है। 'लोकपरिज्ञान' से जीव की अन्तर्दृष्टि खुलती है और ज्ञान के दर्पण में सब-कुछ साफ-साफ झलकने लगता है-हमारे भटकने के क्षेत्र क्या हैं और उनका स्वरूप क्या है? हमारी लोकयात्रा का भूत-भविष्य-वर्तमान पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। हमें एक जीवन-दर्शन मिलता है, जो हमें आत्मा की ओर ले जाता है। अतः जैन भूगोल एक स्वगृह का बोध कराने वाला शास्त्र है, एक जीवन-दर्शन है, ठोस सत्य है, कल्पना-मात्र नहीं है। यह हमें भूगोल :: 511 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy