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6.
= 256x256x256..
. बार गुणा कराना
= बहुत बड़ी संख्या
5.
अर्द्धच्छेद एवं वर्गशलाका के नाम से आधुनिक लघुगुणक (Lograthims) के सिद्धान्तों का प्रयोग तिलोयपण्णत्ती एवं धवला में किया गया है। पाश्चात्य वैज्ञानिक इनके आविष्कार का श्रेय John Napier (1550-1617 A.D.) एवं J. Burgi (1552.1632 A.D.) को देते हैं, जो सम्यक् नहीं है। प्रो. ए.एन.सिंह ने इसे पूर्णत: जैनियों का अविष्कार माना है । 'तिलोयपण्णत्ती' में log,, log, मिलते हैं, किन्तु logo या log नहीं । धवला टीका में इससे सम्बद्ध अनेक सूत्र भी मिलते हैं। जैसे
log m.n = logm + logn
7.
m
log- = logm-logn
n
अनन्त
एवं 0,
संकेत हैं
logm" = nlogm
log logm" = logn + log logm
एवं अन्य अनेक सूत्र दिये हैं ।
जैन आचार्यों ने विभिन्न गणितीय राशियों, यथा- संख्यात, असंख्यात, अनन्त, शून्य, पल्य, सागर, लोक, जगश्रेणी, अंगुल, धनांगुल तथा गणितीय प्रक्रियाओंयोग अन्तर, गुणन, भाग, अर्द्धच्छेद, वर्गशलाका आदि को व्यक्त करने हेतु अनेक चिन्हों का प्रयोग किया है । इन संकेतों का अर्थ-ग्रहण करना वर्तमान में दुरूह अवश्य है, किन्तु जटिल प्रक्रियाओं को इस माध्मय से अत्यन्त संक्षेप में व्यक्त कर दिया गया है। जो उस समय गणितीय विकास का आधार बनी।
संख्यात
असंख्यात
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504 :: जैनधर्म परिचय
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जग श्रेणी
α
जगप्रतर
ख
धनलोक
यो आदि अनेक अंक गणितीय, बीजीय एवं ज्यामितीय
पूर्णांक संख्याओं के समान ही भिन्नों के विकास में भी जैनाचार्यों का अतिविशिष्ट स्थान है। सूर्यप्रज्ञप्ति (500 ई.पू.) में अनेक प्रकार की जटिल भिन्नों, उनके गुणन, भाग, व्युत्क्रम, विच्छेद आदि के उदाहरण मिलते हैं । परवर्ती ग्रन्थों में भी इनका व्यापक रूप में प्रयोग किया गया है। जम्बद्रीप
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