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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रज्ञप्ति, अनुयोग द्वार सूत्र एवं तिलोयपण्णत्ती में करणीगत राशि Va+E का मान ate/2a प्रयोग किया जाता है। श्रीधर कृत त्रिंशतिका के उपरान्त धवला टीका में वितत भिन्नों का सुन्दर निर्वचन अन्य उदाहरणों सहित उपलब्ध है। ये प्रकरण पश्चिम में भारत में विकसित होने के बाद प्रचलित हुए। महावीराचार्य (850 ई.) ने भिन्नों के योग हेतु लघुत्तम समापवर्त्य का नियम (निरुद्ध नाम से) तथा किसी भी भिन्न को इकाई अंश वाली भिन्नों अर्थात् एकांशक भिन्नों के पदों में व्यक्त करने के अनेक नियम प्रस्तुत किये हैं। ये दोनों महावीराचार्य के मौलिक योगदान हैं। 8. महावीराचार्य (850 ई.) ने सर्वप्रथम ऋणात्मक संख्याओं की प्रकृति में वर्गमूल न होने के कथन के माध्यम से प्राकृतिक संख्याओं में ऋणात्मक संख्याओं के वर्गमूल की उपस्थिति को नकारा। उनके इस प्रयास ने काल्पनिक संख्याओं के विकास का पथ प्रशस्त किया। 9. क्रमचय एवं संचय का विषय जैन-साहित्य में विशदता के साथ भंग एवं विकल्प शीर्षकों के अन्तर्गत प्राचीन काल से उपलब्ध है। यत्र-तत्र इसको प्रस्तार, परिवर्तन, आलाप की संज्ञा दी गयी है। भगवती सूत्र, स्थानांगसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र (150 ई.पू.-150 ई.) में वस्तुओं में से 1, 2, 3..........वस्तुओं को प्राप्त करने के नियम दिये हैं। यथा ___ "c, =n _n(n-1) (n-2) _n(n-1) - "c = 1.2.3 "p = n "p2 = n(n-1) "py = n(n-1) (n-2) उपरान्त लिखा है कि इसी प्रकार 5, 6, 7............10 संख्यात, असंख्यात के सन्दर्भ में इनका मान ज्ञात किया जा सकता है। अनुयोगद्वार-सूत्र की हेमचन्द्रसूरि- कृत टीका से स्पष्ट है कि इसके व्यापक सूत्रों C, 1.2 P (n-r)! का ज्ञान जैनाचार्यों को था। भाष्यकार जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य (609 A.D.) में भद्रबाहु कृत आवश्यक नियुक्ति से 2 गाथाएँ उद्धृत की हैं, जिसमें "p, = n! = n (n1) (n-2)----3.2.1 दिया है। महावीराचार्य (850 ई.) ने n वस्तुओं में से r के चयन का व्यापक-सूत्र दिया है। गणित :: 505 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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