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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir करना, सत्यव्रत में मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यानादि करना, अचौर्यव्रत में स्तेनप्रयोग बताना, चोरी का माल लेना आदि, ब्रह्मचर्य व्रत में दूसरों का विवाह कराना आदि तथा परिग्रहपरिमाण व्रत में धन-धान्यादि की सीमा को घटाना या बढ़ाना आदि अतिचार लगते हैं। इन अतिचारों से रहित व्रतों का पालन ही शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है। व्रतों की रक्षा के कारणभूत शीलव्रत भी गृहस्थ व मुनिजीवन में कहे गये – जो गृहस्थों के लिए दिग्वतादि सात क तथा मुनियों के महाव्रतों की रक्षा के लिए 18000 शील कहे। जिस प्रकार मलयुक्त बीज बोने से उनके कोई फल नहीं लगता, उसी प्रकार अतिचार सहित व्रतपालन फलदायी नहीं है, अतः निरतिचार पालन की प्रेरणा दी गई। - वस्तुतः तो मुनि जीवन व गृहस्थ जीवन में रागादि के घट जाने से स्वयं ही ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे पापों से विरत क्रमशः शुद्ध तथा शुभ भावों में लीन रहते हैं, इसी प्रवृत्ति को व्रतादि संज्ञा दे दी जाती है। कदाचित् रागादि के कारण इन व्रतों में दोष लगते हैं, उन्हें अतिचार कहा जाता है, उन अतिचारों से रहित होकर निर्दोष व्रत - शीलपालन को ही शीलव्रतेष्वनतिचार भावना नाम दिया जाता है । 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना - आत्मा तो ज्ञान स्वभावी ही है, उसका जो भी कार्य, अवस्था, परिणमन होता है, वह सभी ज्ञान रूप ही होता है। ज्ञान से ही आत्मा की उन्नति, उत्थान होता है। आत्मा के ऐसे विशिष्ट स्वभाव की प्राप्ति की इच्छा करते हुए ज्ञान-प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहना, वहीं अपने मन को लगाना, बाह्य सामग्री, विषय-भोगों में मन को न जाने देना व ज्ञानाभ्यास में ही रत रहना, वह अभीक्ष्ण- ज्ञानोपयोग भावना है। अभीक्ष्ण का शाब्दिक अर्थ ही सतत, निरन्तर, लगातार या अनवरत होता है । यहाँ ज्ञानाभ्यास को एक क्षण को भी नहीं छोड़ने का उपदेश इस भावना में दिया गया है। जिस प्रकार अन्धा मनुष्य किसी पदार्थ को नहीं देख सकता, उसी प्रकार ज्ञान - रहित व्यक्ति कर्तव्य - अकर्तव्य को, सत्-असत् को, हेय - उपादेय को न तो देख सकता है और न ही कोई निर्णय कर सकता है । अतः ज्ञानाभ्यास होना / करना अति आवश्यक है। ज्ञान की महिमा तो सभी स्थानों पर विशद रूप से गाई गयी है । जहाँ छहढालाकार पण्डित दौलतराम जी की ये पंक्तियाँ कि "ज्ञान समान न आन जगत में सुख कौ कारण, इह परमामृत जन्म-जरा-मृतु रोग निवारण" ज्ञान की महत्ता बताती है, तो यह कहावत कि "ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समाना: " यह भी ज्ञान को सर्वोत्कृष्ट प्रतिपादित करती है I जिनशासन में पाँच ज्ञानों का वर्णन आता है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा केवलज्ञान । इनमें से प्रथम दो ज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं, इन्द्रियों और मन के द्वारा उत्पन्न होने से पराधीन ज्ञान हैं। ये दोनों ज्ञान सभी जीवों के होते हैं। गुणस्थानों के क्रमानुसार देखने पर ये दोनों ज्ञान यदि सम्यक् हों तो चतुर्थ अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान से बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। यदि मिथ्या हों तो पहले से तीसरे गुणस्थान तक होते हैं । अवधि 438 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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