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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अन्तिम तप-विनय में आवश्यक कर्मों को करना, परीषहों को जीतना, आतापनादि गुणों में उत्साहित होना, अनशनादि तपों को करना, तपोवृद्धों की सेवा करना आदि यथोचित सत्कार करना आदि शामिल है। ज्ञान-लाभ, पंचाचार-निर्मलता, आराधनादि अनेक गुण-सिद्धि करना ही इस विनयसम्पन्नता भावना का मूल प्रयोजन है। 3. शीलवतेषु अनतिचार भावना-तीसरी भावना है-शीलव्रतों में अनतिचार। सर्वप्रथम शील क्या है? तो शील शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, जैसे-सत्स्वभाव, ब्रह्मचर्य, दिग्व्रतादि सात व्रत आदि। सत्स्वभाव का अर्थ है क्रोधादि के वश में न होना, और यही स्वभाव अहिंसादि व्रत रक्षा में प्रधान है, इस प्रकार अहिंसादि व्रतों की रक्षा के कारणों को शील कहा जाता है। इस कारण से क्रोधादि कषायों का त्याग, ब्रह्मचर्य व्रत पालन तीन गुणव्रतों व चार शिक्षाव्रतों का पालन, इसे शील कहा जाता है। अब व्रत क्या है जिसकी रक्षा करना उनके पालनकर्ता को इष्ट है? तो शुभकार्यों में प्रवृत्ति करना तथा अशुभ कार्यों को छोड़ देना, यह व्रत है। यह व्रत दो प्रकार से वर्णित है-अहिंसादि शुभ भावों में प्रवृत्ति रूप तथा हिंसा, असत्यादि अशुभ कार्यों से निवृत्ति रूप। पाँच पापों से निवृत्तिपूर्वक व्रतों का पालन होता है। जो प्रमाद के वश से होने वाली जीव की हत्या या उसे पीड़ा पहुँचाना आदि हिंसा के त्याग से अहिंसा व्रत होता है। यदि डॉक्टर के द्वारा सावधानी से इलाज करते हुए भी औषधि या यन्त्र के प्रयोग से रोगी के प्राण निकल जाएँ, तो वह दोषी नहीं, किन्तु यदि जीव को मारे बिना भी उसे कष्ट देने का अशुभ संकल्प किया, तब हिंसा का दोष लगेगा, क्योंकि प्रथम स्थिति में प्रमाद नहीं है, किन्तु द्वितीय में है। यहीं हिंसा और अहिंसा का वैशिष्ट्य है। हिंसा के चार भेद किए- संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी व विरोधी। इनमें से मुनिजन तो सर्वथा हिंसा के त्यागी होते हैं, किन्तु गृह-कार्यों में होने वाली आरम्भी हिंसा, आजीविका में होने वाली उद्योगी हिंसा व आश्रितों की तथा स्व-रक्षा में होने वाली विरोधी हिंसा का त्याग गृहस्थ के जीवन-निर्वाह के अनुकूल न होने से वह मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है। इसप्रकार अहिंसा व्रत का पालन मुनि व गृहस्थ दोनों के जीवन में होता है। रागादिभावों से या कषायपूर्वक अप्रशस्त या अशुभ वचन बोलने रूप असत्य का त्याग सत्य व्रत है। हिंसा के समान ही असत्य में भी प्रमाद के कारण दोष लगता है। मुनिजन तो सत्स्वभाव के ज्ञाता, सर्वथा असत्य के त्यागी होते हैं तथा गृहस्थ असत्य का आंशिक त्याग कर सत्याणुव्रत का पालन करता है। इसीप्रकार मुनिराज तो कृत-कारित-अनुमोदना व मन-वचन-काय से चोरी, कुशील व परिग्रह के सर्वथा त्यागी होते हैं व गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार इनका त्याग कर अणुव्रतों के पालन में तत्पर होता है। अहिंसादि पाँच व्रतों में अनेक अतिचार लगते हैं, जैसे अहिंसाव्रत में बन्धन, वधादि ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 437 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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