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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो स्वर्ग-मोक्षादि विशिष्ट अभ्युदयों को प्राप्त कराता है उसे विनय कहते हैं। विनय मद-नाशक होता है, शिक्षा का सार होता है, सज्जनों के लिए स्पृहणीय, समाधि आदि गुण-दायक होता है, मंगलफलदायक होता है तथा जिनलिंगधारण में साधक होता है। जिस प्रकार लोटा अपने सिर को नीचा करके ही जलग्रहण करता है, यदि वह अपने को न झुकावे तो जल प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार मनुष्य जितना विनम्र बनता है, राग-द्वेष आदि कषायों को दूर करता है और इन्द्रियों को अपने वश में करके सद्गुणों की उपासना करता है, उतना ही वह उन सभी गुणों को प्राप्त करने लगता है। विनयहीन की तो शिक्षा ही निष्फल अथवा अनिष्टकारी होती है, तब उसके लिए जिनलिंगधारण करना तो आत्म-विडम्बना मात्र है। इस प्रकार विनय-सम्पन्नता की महत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती शास्त्रों में विनय के चार भेद उल्लिखित हैं-दर्शन विनय, ज्ञानविनय, चारित्र विनय तथा उपचार विनय। आचार ग्रन्थों में तपविनय नामक पंचम भेद भी प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन में शंकादि दोषों को दूर करने व उपगूहनादि गुणों को उत्पन्न करने में जो प्रयत्न किया जाता है, वह दर्शन-विनय कहलाता है। अर्हन्त-सिद्धादि की भक्ति-वंदन-स्तुति आदि करना, धर्म के यश का प्रचार करना, अवर्णवाद का नाश, आसादन का परिहार आदि दर्शन-विनय के ही अन्तर्गत आते हैं। सम्यग्दर्शनादि को निर्मल बनाने में जो प्रयत्न किया जाता है, वह तो विनय है तथा निर्मल बने हुए उनमें जो वृद्धि आदि का प्रयत्न है, वह आचार कहलाता है। बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना उसका अभ्यास करना, स्मरण करना आदि ज्ञान-विनय है। यह ज्ञान-विनय असमयों से इतर काल में ग्रन्थादि पढ़ने रूप कालाचार, शास्त्र-शास्त्रज्ञ व उनके गुण-प्रेम व गुण-ग्रहण की भावना रूप विनयाचार, ग्रन्थ पढ़ने आदि में कालावधि के संकल्प रूप उपधानाचार, शास्त्र-पठन में आदर करने रूप बहुमानाचार, गुरु का नाम न छिपाने रूप अनिह्नवाचार, शब्दों के शुद्ध उच्चारणरूप शब्दाचार, शुद्ध अर्थ अवधारणरूप अर्थाचार और शुद्ध शब्द व शुद्ध-अर्थ के कथनरूप उभयाचार के भेद से आठ प्रकार का है। पश्चात् चारित्र-विनय का स्वरूप प्रस्तुत करते हैं कि चारित्र अर्थात् आचरण को निर्मल या निर्दोष बनाने का प्रयत्न करना, यही चारित्र-विनय है। कषायों का उपशम या क्षय, इन्द्रिय-विषयों से राग-द्वेष त्याग, यत्नपूर्वक समिति पालन, व्रतों के उद्धार आदि से स्वर्ग-- मोक्ष के कारणभूत चारित्र की विनय होती है, ऐसा चारित्र विनय का स्वरूप है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्रवन्त जीवों की विनय करना, वह उपचार विनय कहलाता है। इसके अन्तर्गत आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, नमस्कारादि करना, मन-वचन-काय से उनकी विनय करना आदि आता है। उपचार विनय के प्रत्यक्ष व परोक्ष दो भेद हैं, जिनके कायिक-वाचिक-मानसिक के भेद से प्रत्येक के तीनतीन भेद हैं। 436 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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