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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 44 'प्रश्न - केवल उस एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कैसे सम्भव है, क्योंकि ऐसा मानने से सब सम्यग्दृष्टियों के तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का प्रसंग आएगा ? उत्तर - इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि शुद्धनय के अभिप्राय से तीन मूढ़ताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त गुणों से अपने निज स्वरूप को प्राप्त कर स्थित, सम्यग्दर्शन के साधुओं को प्रासुक अपरित्याग, साधुओं की समाधि संधारणा, साधुओं की वैयावृत्ति का संयोग, अर्हन्त भक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचन भक्ति, प्रवचन वत्सलता, प्रवचनप्रभावना और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग युक्तता में प्रवर्तने का नाम विशुद्धता है। उस एक दर्शनविशुद्धता से ही तीर्थंकर कर्म को बाँधते हैं। अर्हन्त के द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान के अनुकूल प्रवृत्ति करने या उक्त अनुष्ठान के स्पर्श को अर्हन्त भक्ति कहते हैं और यह दर्शनविशुद्धता आदिकों के बिना सम्भव नहीं है । " 8/3, 41 /80/1 धवला, आचार्य वीरसेन स्वामी आचार्य अकलंकदेव ने 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' ग्रन्थ में तो 'जिनोपदिष्ट निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि को दर्शनविशुद्धि कहा है। उसके आठ अंग हैं - इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अरक्षण और आकस्मिक - सातभयों से मुक्त अथवा जिनोपदिष्ट तत्त्वों में शंका रहितता रूप निःशंकित, विषयोपभोग-आकांक्षा रहित नि:कांक्षित, अशुभभावनाबद्ध चित्तविचिकित्सा रहित निर्विचिकित्सा, अतत्त्व में तत्त्व बुद्धिरहित युक्तियुक्त अमूढदृष्टि, धर्मभावना से आत्मा की धर्मवृद्धि करना - उपवृंहण, कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्टता के अवसर आने पर भी धर्मदृढ़ रहना-स्थितिकरण, जिनप्रणीत धर्मामृत तथा धर्मात्माओं से नित्य अनुराग रूप वात्सल्य तथा रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना - प्रभावना । इन आठ अंग सहितता ही दर्शनविशुद्धता है', - ऐसा कहा है । 2. विनय - सम्पन्नता भावना - दर्शनविशुद्धि भावना के बाद क्रम आता है विनयसम्पन्नता भावना का । विनय नम्रता को कहते हैं एवं नम्रता युक्त जीव विनय - सम्पन्न है और उसके भाव को विनय-सम्पन्नता कहते हैं । रत्नत्रय तथा रत्नत्रयधारियों का यथोचित उपकार करना, उनका सत्कार करना, सेवा-शुश्रूषा करना आदि शास्त्रानुकूल कर्म में प्रवृत्ति करना विनय है । इसीप्रकार के कर्मों से इसकी उत्पत्ति होती है । कषाय और इन्द्रियों को बिना आत्मा शुद्ध नहीं होता, उसमें विनय नहीं आती। अतः विनयोत्पत्ति में कषाय व इन्द्रियजय भी आवश्यक है। विनय मन की उज्ज्वलता का कारण है, शुद्धि का मुख्य साधक है। अतः राग-द्वेषादि के द्वारा जिस प्रकार आत्मा का घात न होवे, उस प्रकार प्रवृत्ति करना यही विनय - सम्पन्नता का मर्म समझना चाहिए। 'विनयतीति विनयः' इस निरुक्ति के अनुसार विनय शब्द के दो अर्थ होते हैं - प्रथम" विनयति अपनयति इति विनयः" अर्थात् जो दूर करता है, उसे विनय कहते हैं, इस प्रकार अप्रशस्त (बुरे कर्मों को दूर करता है उसे विनय कहते हैं। द्वितीय है-'" विशेषेण नयति इति विनयः " अर्थात् जो विशेष रूप से प्राप्त कराता है, उसे विनय कहते हैं, इस प्रकार "" ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 435 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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