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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्रष्टा रूप स्वभाव का श्रद्धान, अनुभव (ज्ञान) और ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो आचरण है, वह धर्म है। यह धर्म उत्तम क्षमादि दशलक्षण रूप, रत्नत्रयरूप तथा अहिंसादिमय कहा जाता है। ऐसे उत्तम धर्म की शरण पाकर जीव जगत् से विरक्त होकर यथाजात रूप मुनिपद का धारी हो स्वाधीन, स्थायी, सन्तुष्टिदायक आत्मसुख का धनी हो जाता है। अन्य कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि आदि से स्वाधीनता के स्थान पर, पराधीनता की प्राप्ति होती है जो सुख का सच्चा मार्ग नहीं है। इसप्रकार इन बारह भावनाओं का निरन्तर चिन्तवन जीव के आसक्ति भाव को नष्ट कर विरक्ति के भावों को जन्म देता है और आत्मलीनता का साधक होता है। सोलह कारण भावना मनुष्य के व्यक्तित्व में 'भाव' का स्थान सर्वोपरि है। भावों से ही स्वर्ग है, भावों से ही नरक है, यहाँ तक कि भावों से ही मोक्ष है। 'सदभावों से सदगति और बरे भावों से दुर्गति' यह तो जगत्प्रसिद्ध उक्ति है। भावों की पुनः पुनः प्रवृत्ति ही भावना नाम पाती है। सोलह भावनाएँ जो तीर्थंकर बनने में निमित्तभूत हैं, वे भी भावों की निरन्तरता ही हैं। ___ध्यान देने योग्य है कि तीर्थंकर बनने के लिए भावों की निर्मलता मुख्य साधन है। चारों गतियों में केवल मनुष्यगति ही ऐसी है, जिसमें भावों की ऐसी उत्कृष्टता, निर्मलता सम्भव है। यही कारण है कि केवल मनुष्य ही तीर्थंकर बनने की सम्भावनाओं से युक्त हो सकता है। जिस मनुष्य को आत्मकल्याण का आनन्ददायीपना इतना मधुर लगा हो कि वह जीवमात्र को इस आनन्ददायी आत्महित के लिए प्रबल प्रेरक हो, जिससे आत्मकल्याण के साथसाथ विश्व कल्याण का सर्वोदयी वात्सल्य जाग्रत हो। इन्हीं पवित्र सम्यग्दर्शन सहित भावनाओं में तीर्थंकर कर्म प्रकृति का आस्रव-बन्ध होता है। वे सोलह कारण भावनाएँ निम्न हैं1. दर्शनविशुद्धि, 2. विनयसम्पन्नता, 3. शीलव्रतेष्वनतिचार, 4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, 5. संवेग, 6. शक्तितस्त्याग, 7. शक्तितस्तप, 8. साधुसमाधि, 9. वैयावृत्यकरण 10.अर्हद् भक्ति , 11. आचार्य भक्ति, 12. बहुश्रुत भक्ति, 13. प्रवचन भक्ति, 14. आवश्यकापरिहाणि 15. मार्गप्रभावना और, 16. प्रवचन वात्सल्य भावना। 1. दर्शनविशुद्धि-तीर्थंकरत्व नामकर्म की कारणभूत सोलहकारण भावनाओं में सर्वप्रथम व सर्वप्रधान भावना दर्शनविशुद्धि है, इसके बिना शेष 15 भावनाएँ निरर्थक हैं; क्योंकि दर्शनविशुद्धि ही आत्मस्वरूप संवेदन के प्रति एकमात्र कारण है। सम्यग्दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ़ हो जाना ही दर्शनविशुद्धि है। 434 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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