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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आदि तीन ज्ञान सीधे आत्मा से होने के कारण प्रत्यक्ष हैं तथा अवधिज्ञान मिथ्या व सम्यक् दोनों हो सकता है। मनःपर्यय और केवलज्ञान सम्यक् ही होते हैं। एक आत्मा में कमसे-कम एक केवलज्ञान और अधिक से अधिक चार- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्ययज्ञान तक एक साथ हो सकते हैं। वस्तुत: ज्ञान चैतन्य की परिणति होने से इन पाँचों भेदों को मात्र व्यवहार कहा जाता है, उपचार कहा जाता है। अनादि से काम-क्रोधादि मुझ जीव के साथ लगे हुए हैं, अब ऐसी भावना कि जिनेन्द्र भगवान की वाणी के अभ्यास से रागादिक का अभाव हो, निज ज्ञायक भगवान आत्मा में ही अपना उपयोग ठहर जाए, यही आत्मा का हित, यही अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है। ज्ञानाभ्यास करने से संसार-देह-भोग से वैराग्य उत्पत्ति, विषयवांछा व कषाय का नाश, मन की स्थिरता, व्रतों की दृढ़ता, जिनशासन प्रभावना आदि अनेकानेक कार्य होते हैं। अत: मनुष्य जन्म की एक भी घड़ी सम्यग्ज्ञान के बिना मत खोवो, ज्ञान ही सर्व जीव को परमशरण है। __5. संवेग भावना–संसार-देह-भोगों से विरक्त होकर धर्म और धर्म के फल में अनुराग करना, वह संवेग भावना है। दुःखों के समुद्र रूप संसार में शारीरिक, मानसिक, इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज आदि अनेक प्रकार के दुःख भरे हुए हैं, इन दुःखों से नित्य डरते रहना संवेग कहलाता है और यही मुक्ति का परम्परा साधन है। संसार तो दुःखों का ही घर है। जिस पुत्र से यह जीव राग करता है, वही पुत्र अपने कार्य सधने तक तो पिता का आदर करता है, किन्तु यदि असमर्थ हो जाए तो उसी पिता का, जो उसके राग में अनेक कष्ट सहकर भी उसका पालन-पोषण करता है, उसका अनादर करने लगता है। स्त्री है, सो वह भी ममता-तृष्णा बढ़ाने वाली, धर्म का नाश करने वाली, ध्यानस्वाध्याय में विघ्न कराने वाली, क्रोधादि कषायों में तीव्रता कराने वाली है और कलह का मूल, दुर्ध्यान का स्थान व मरण को बिगाड़ने वाली है। मित्रादिक भी विषयों में उलझाने वाले स्वार्थ के सगे हैं, बुरे समय में साथ देना तो दूर, सामने भी नहीं आते। ___ इन्द्रियों के विषय-भोग साक्षात् विष ही हैं। ये आत्मा के स्वरूप को भुलाने वाले हैं, कुगति के कारण हैं। विषय तो अग्नि के समान दाह कराने वाले हैं, न हों तो प्राप्ति की इच्छा, हो जाएँ तो भोगने की इच्छा, अधिक हो जाएँ तो सम्हालने की चिंता, इस प्रकार ये सदैव ही जीव को संतप्त करने वाले हैं। __ यह शरीर रोगों का स्थान, अशुचिता का पुंज है, प्रतिक्षण जीर्ण होता जाता है, करोड़ों उपाय, मन्त्र-तन्त्रादि करने पर भी, विभिन्न प्रकार से रक्षा किये जाने पर भी मरण को प्राप्त होता ही है। इस प्रकार इस संसार का, संसार के दुःखों का स्वरूप जानना, उनसे नित्य डरते रहना व धर्म का स्वरूप जानकर उसमें अनुराग करना, वही संवेग भावना है। वस्तु का जो स्वभाव है, वह धर्म है । रत्नत्रयरूप, दशलक्षणरूप तथा जीवदया रूप भाव ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 439 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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