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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org द्वेषी हुआ अनादि से जन्म-मरण के दुःख भोग रहा है। जैनधर्म के अनुसार जो जीव स्वयं (निज आत्मा) को जानकर, पहचानकर स्वयं में जम जाता है, रम जाता है, वह जीव मात्र अन्तर्मुहूर्त में (48 मिनट में ही) अष्ट कर्मों का विनाश करके परमात्मा बन जाता है, वह परमात्मा वीतरागी व सर्वज्ञ है तथा वह सृष्टि का कर्त्ता नहीं है । वह जगत् का मात्र ज्ञाता - दृष्टा होता है तथा अपने ज्ञाता - दृष्टा स्वभाव को जानकर, उसमें रमकर अनन्त काल के लिए अनन्त सुख प्राप्त कर लेता है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐसी अवस्था प्राप्त करने के लिए हमें सर्वप्रथम उन परमेश्वर स्वरूप मुक्त आत्माओं की शरण में जाना होता है, जिन आत्माओं ने वह सुख प्राप्त कर लिया है, ऐसे अर्हन्त, सिद्ध भगवन्तों की शरण लेकर अपने आत्मा को जानने का प्रयास करना होता है । एतदर्थ वीतरागी सर्वज्ञ - स्वभावी अर्हन्त भगवान् के द्वारा कहे एवं आचार्यों द्वारा लिखे गये वीतरागता के पोषक शास्त्रों का अध्ययन मनन- चिन्तन जरूरी है। जैनधर्म की मान्यता के अनुसार द्रव्यानुयोग की दृष्टि से कहें, तो यह जीव लगातार एक अन्तर्मुहूर्त तक आत्मा में स्थिर होकर चार कषायों के अभावपूर्वक स्व-सन्मुख हुआ पाँचों इन्द्रियों के विषयों को जीतकर अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति प्राप्त कर अनन्तकाल तक रहने वाला परमात्म-पद प्राप्त कर लेता है । दूसरे, करणानुयोग के दृष्टिकोण से कहें, तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मानुभवी जीव को 'जिन' कहते हैं। छठवें सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज को जिनवर तथा घाती कर्मों का अभाव करने वाले तेरहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा को जिनवर वृषभ (अर्हन्त) कहते हैं । वे अर्हन्त ही शेष अघातिया कर्मों का अभाव कर सिद्ध भगवान्होते हैं। 1. प्रथमानुयोग 2. चरणानुयोग इन जिनवर वृषभ (अर्हन्त देव ) द्वारा प्रसारित दिव्यध्वनि को आचार्यों ने चार अनुयोगों द्वारा अर्थात् चार कथन पद्धतियों द्वारा प्रतिपादित किया है, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं । सम्पूर्ण जिनवाणी के कथन करने की चार शैलियाँ हैं, जिन्हें चार अनुयोग कहते हैं वे इस प्रकार हैं 3. करणानुयोग और 4. द्रव्यानुयोग । प्रथमानुयोग में 63 शलाका महापुरुषों के चरित्रों द्वारा अज्ञानी, अल्पज्ञानी जीवों को सन्मार्ग दर्शन दिया जाता है, मोक्षमार्ग में लगाया जाता है, इस अनुयोग में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि के निरूपण से जीवों अध्यात्म :: 399 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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