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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हो चुके हैं और साढ़े अठारह सहस्र वर्ष शेष हैं। जैनों के परम्परागत विश्वास के अनुसार वर्तमान कल्पकाल के प्रथम तीन युगों में भोगभूमि की स्थिति थी। मनुष्य-जीवन की.वह प्रकृतिपर आश्रित आदिम दशा थी। आज की संस्कृति और सभ्यता की अवधारणा के अनुसार न कोई संस्कृति थी, न सभ्यता, न कोई व्यवस्था थी और न नियम। जीवन अत्यन्त सरल, एकाकी, स्वतन्त्र एवं प्राकृतिक था। जो थोड़ी-बहुत भौतिक आवश्यकताएँ थीं, उनकी पूर्ति कल्पवृक्षों से स्वतः हो जाया करती थी। मनुष्य शान्त एवं निर्दोष था। कोई संघर्ष या द्वन्द्व नहीं था। आधुनिक भूतत्व एवं नृतत्व विज्ञान सम्मत आदिम युगीन प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय युगों की वस्तुस्थिति के साथ इस जैन मान्यता का अद्भुत सादृश्य है। जैन मान्यता के उक्त तीनों युगों में पहला युग असंख्य वर्षों का था, दूसरा उससे लगभग आधा था और तीसरा दूसरे से भी आधा था, तथापि यह तीसरा युग भी अनगिनत वर्षों का था। इस अनुमानातीत सुदीर्घ काल में मानवता प्रायः सुषुप्त पड़ी रही, अतएव उसका कोई इतिहास भी नहीं है। वह एक प्रकार से अनाम युग रहा। तीसरे काल के अन्तिम भाग में चिर-निद्रित मनुष्य ने अंगड़ाई लेनी शुरू की। भोगभूमि का अवसान होने लगा। कालचक्र के प्रभाव से होने वाले परिवर्तनों को देखकर लोग शंकित और भयभीत होने लगे। उनके मन में नाना प्रश्न उठने लगे। जिज्ञासा करवट लेने लगी। अतएव उन्होंने स्वयं को कुलों (जनों, समूहों या कबीलों) में गठित करना प्रारम्भ किया। इस कार्य में बल, बुद्धि आदि में विशिष्ट जिन व्यक्तियों ने उनका नेतृत्व, मार्गदर्शन और समाधान किया वे 'कुलकर' कहलाये। आवश्यकतानुसार व्यवस्था भी वे देते थे और अनुशासन भी रखते थे, अत: वे 'मनु' भी कहलाए। उनकी सन्तति होने के कारण इस देश के निवासी 'मानव' कहलाये। उक्त तीसरे युग के अन्त के लगभग ऐसे चौदह कुलकर या मनु हुए, जिनमें से सर्वप्रथम का नाम प्रतिश्रुति था और अन्तिम का नाभिराय। इन कुलकरों ने अपने-अपने समय की परिवर्तित परिस्थितियों में अपने कुलों का संरक्षण, समाधान और मार्गदर्शन किया। सामाजिक जीवन प्रारम्भ हो रहा था, अब कर्मयुग सम्मुख था। कुलकर युग ___ जैन परम्परा में 14 कुलकरों की एक सामान्य मान्यता है और ऋषभ को 15वाँ कुलकर तथा उनके पुत्र भरत को 16वाँ कुलकर भी इस अपेक्षा से माना गया है, क्योंकि ऋषभ प्रथम तीर्थंकर थे, जिन्होंने लौकिक अभ्युदय का उपाय बताने के साथ ही आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रशस्त किया, तथा उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत प्रथम चक्रवर्ती थे, जिन्होंने मानव समाज में शासन-व्यवस्था को एक स्वरूप प्रदान कर कुलकर मर्यादा का निर्वाह किया। 32 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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