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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है। यह भी कहा गया है कि पुराण का कथन पुरातन कवियों द्वारा किया गया था और इसमें अन्तर्निहित महानता के कारण इसे 'महा' विशेषण से संयुक्त करके 'महापुराण' कहा जाता है। प्रभाचन्द्र ने अपने टिप्पण में यह भी इंगित किया है कि इतिहास किसी एक व्यक्ति के कथानक का वर्णन करता है, जबकि पुराण में त्रिषष्ठि (63) शलाकापुरुषों की कथा का वर्णन होता है। इन 63 शलाका-पुरुषों में इस काल के 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 वासुदेव (नारायण) और 9 प्रतिवासुदेव (प्रतिनारायण) परिगणित होते हैं। तीन तीर्थंकर शान्ति, कुन्थु और अर चक्रवर्ती भी हैं, अतः यह संख्या 60 रह जाती है। जैन-दृष्टि ___ जैन-अनुश्रुतिगम्य मान्यता का विवेचन इतिहास-मनीषी डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने करते हुए बताया है कि जैनधर्म एवं संस्कृति की यह असन्दिग्ध मौलिक मान्यता है कि चराचर जगत् या विश्व अनादि और अनन्त है। जो विभिन्न एवं विविध द्रव्य विश्व के उपादान हैं, जिनसे कि वह निर्मित है, वे सब भी अनादि और अनन्त हैं। असत् से सत् की उत्पत्ति नहीं होती, और सत् का कभी विनाश नहीं होता। अतएव, इस विश्व की न कभी किसी ने सृष्टि की, और न कभी किसी के द्वारा उसका अन्त ही होगा।... किन्तु साथ ही, इस शाश्वत जगत् में उसके उपादान द्रव्यों में निरन्तर परिवर्तन, परिणमन, पर्याय से पर्यायान्तर होते रहते हैं, और उनका निमित्त है कालचक्र। काल का प्रवाह भी अनादि-अनन्त है। काल का सबसे छोटा अविभाज्य अंश 'समय' कहलाता है और सबसे बड़ी व्यवहार्य इकाई 'कल्पकाल'। एक कल्पकाल का परिमाण बीस कोटाकोटि 'सागर' होता है, जो स्थूलतः संख्यातीत वर्षों का होता है। प्रत्येक कल्पकाल के दो विभाग होते हैं-(एक) अवसर्पिणी और (दूसरा) उत्सर्पिणी, जो एक के अनन्तर एक आते रहते हैं। अवसर्पिणी उत्तरोत्तर ह्रास एवं अवनति का युग होता है, और उत्सर्पिणी उत्तरोत्तर विकास एवं उन्नति का। इन दोनों में से प्रत्येक छ: भागों में विभक्त होता है और अवसर्पिणी के प्रारम्भ से उक्त छ: युगों या कालों की गणना प्रारम्भ होती है। प्रथम काल सुखमा-सुखमा, द्वितीय काल सुखमा, तृतीय काल सुखमा-दुःखमा, चतुर्थ काल दुःखमा-सुखमा, पंचम काल दुःखमा, और षष्ठ काल दुःखमादुःखमा हैं। इस समय कल्पकाल का अवसर्पिणी विभाग चल रहा है। वर्तमान अवसर्पिणी की यह विशेषता है कि इसमें कतिपय अपवाद या सनातन नियम के विरुद्ध कुछएक अनोखी बातें भी हो जाया करती हैं। अतएव सामान्य अवसर्पिणी से भेद करने के लिए इसे हुंडावसर्पिणी कहते हैं। इसके प्रथम चार भाग व्यतीत हो चुके हैं और पाँचवाँ भाग या आरा (अरिक) चल रहा है, जिसके लगभग अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 31 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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