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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौदह कुलकरों ने क्रमशः सभ्यता की ओर मानव को प्राकृतिक सदयता के क्षीण होने के क्रम में अग्रसर किया। (1) प्रतिश्रुति ने सूर्य और चन्द्र के पहली बार देखे जाने पर भयभीत मनुजों का भय दूर किया। (2) सन्मति ने तारा-समूह के पहली बार दर्शन होने पर उसके प्रति मनुष्य के भय का निवारण किया। (3) क्षेमंकर ने पशुओं को पालतू बनाकर उपयोग में लाने के उपाय बताये। (4) क्षेमंधर ने हिंस्र हो गये वन्य पशुओं से काष्ठ एवं पाषाण के आयुधों की सहायता से त्राण पाने का उपाय बताया। (5) सीमंकर ने ह्रास होते जा रहे कल्पवृक्षों की कमी से उद्भूत विवाद का निराकरण मानव-समूह के लिए कल्पवृक्षों की सीमा नियत करके किया और इस प्रकार सर्वप्रथम सम्पत्ति की अवधारणा मानव समाज में हुई। इन पाँच कुलकरों के समय में शनैः-शनैः अपराध-भावना में वृद्धि हुई और सम्पत्ति की अवधारणा ने अपराध-वृत्ति को सम्पुष्ट किया, तथापि अभी मानव अपराध-बोध में सहज था और "हा अर्थात् 'खेद है कि तुमने ऐसा अपराध किया," कह देने मात्र से अपराध का शोधन हो जाता था तथा अपराधी पुनः अपराध में प्रवृत्त नहीं होता था। अभी मानव सहज प्रकृत अवस्था (Savage Stage) में था। (6) सीमन्धर ने यह देखकर कि भोजन-प्रदायी कल्पवृक्षों का अभाव बढ़ता जा रहा है, जिसके कारण मनुष्यों में आपस में कलह बढ़ती जा रही है, व्यक्तिश: कल्पवृक्षों के उपयोग की सीमा नियत की और इस प्रकार व्यक्तिगत सम्पत्ति की अवधारणा का सूत्रपात किया। (7) विमलवाहन ने पालतू पशुओं को वश में कर और बन्धन में रख वाहन के रूप में उपयोग में लाने का उपाय बताया। (8) चक्षुष्मान् के समय में माता-पिता युगलिया सन्तान पुत्र और पुत्री को जन्म देने के बाद जीवित रहे और उनमें अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य-भाव का उदय हुआ। (9) यशस्वान् के समय में मानव अपनी सन्तान में ममत्व का अनुभव करने लगा-सम्भवत: इसी समय में माता को प्रसव-पीड़ा की अनुभूति और सन्तान को स्तनपान कराने की इच्छा जागृत हुई। अब समूह से जाति की ओर मनुष्य अग्रसर हुआ। (10) अभिचन्द्र के समय में माता-पिता अपनी सन्तान के साथ क्रीडा भी करने लगे और उन्हें सन्तानसुख का बोध होने लगा। उक्त 5 कुलकरों के समय में व्यक्तिगत सम्पत्ति और सन्तान के प्रति मोह ने अपराध-वृत्ति को प्रोत्साहित किया, परन्तु अभी भी सामाजिक अपराध की वृत्ति जागृत नहीं हो पायी थी। अपराध-बोध की सहजता कम होती गयी और अब अपराध निवारण के लिए अपराधी को 'हा' के साथ 'मा' का आदेश भी करना पड़ने लगा-"खेद है कि तुमने ऐसा अपराध किया, अब आगे मत करना"। अब मानव सहज-प्रकृत-अवस्था से असंस्कृत अवस्था (Barbaric stage) में अग्रसर हो गया था। (11) चन्द्राभ के समय में माता-पिता सन्तान का लालन-पालन करने लगे और कौटुम्बिक व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ।,(12) मरुदेव के समय में कल्पवृक्षों अर्थात् इतिहास के प्रति जैन दृष्टि :: 33 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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