SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 2. रहोभ्याख्यान-स्त्री-पुरुषों के द्वारा एकान्त में किए गये रहस्य का उद्घाटन करना रहोभ्याख्यान है। अभिनिवेशवश, किसी प्रकार के हठाग्रह से एवं रागादि के आवेश से प्रतिपादन करे, तो वह अतिचार नहीं है, प्रमाद योग होने के कारण अनाचार ही है। 3. कूटलेखनक्रिया-किसी के नहीं कहने पर भी किसी दूसरे की प्रेरणा से यह कहना कि उसने ऐसा कहा है या ऐसा अनुष्ठान किया है। इस प्रकार वंचन के निमित्त लेख लिखना कूटलेख क्रिया है। दूसरे शब्दों में-खोटे कागज पत्र तैयार करना, नोट आदि बनाना, दूसरों के मोहर, अक्षरों आदि बनाकर दूसरों को ठगना आदि कूटलेख क्रिया है, यह भी त्याज्य है। 4. न्यासापहार-हिरण्य आदि निक्षेप में अल्पसंख्या का अनुज्ञा वचन न्यासापहार है अर्थात् किसी ने अपने पास धरोहर रखा, और कुछ दिन बाद आया, ठीक प्रमाण की उसे विस्मृति हुई, उसने कम बताया तो झटपट कह देना कि ठीक है, मैं देता हूँ, ले जाइए, यह कहकर अवशिष्ट भाग का अपहरण करना न्यासापहार है। पूर्ण अंश का अपहरण करना तो अनाचार है। 5. साकार-मन्त्र-भेद-प्रयोजन आदि के द्वारा पर के गुप्त अभिप्राय का प्रकाशन साकारमन्त्रभेद है अर्थात् प्रयोजन प्रकरण, अंगविकार अथवा भूक्षेप आदि के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर ईर्ष्यावश उसे प्रकट कर देना साकार-मन्त्र-भेद है।2। ये पाँच अतिचार व्रतभंग-अभंग वृत्ति की अपेक्षा उपलक्षण से कहे गये हैं। भिन्नभिन्न आचार्यों ने इन अतिचारों को कुछ परिवर्तन के साथ प्रतिपादित किया है। कुछ शब्दों में अन्तर होने पर भी अर्थ-भावार्थ में विशेष अन्तर नहीं है। इस प्रकार के सत्यव्रत को एकदेश से भंग करने वाले अन्य वचन या प्रवृत्तियाँ भी सत्यव्रत के अतीचार हैं; सत्याणुव्रती को इन सब बातों को सावधानीपूर्वक विचार कर सत्य को जीवन में उतारना चाहिए। अचौर्याणुव्रत-बिना दिए हुए दूसरों के पदार्थों का ग्रहण करना चोरी है। चोरी हिंसा का एक रूप है, अहिंसा के सम्यक् परिपालन के लिए चोरी का त्याग भी आवश्यक है। चोरी करने से वंचित व्यक्ति को पीड़ा होती है। अत: चोरी करने से अहिंसा नहीं पल सकती तथा चोरी करने वाला सत्य का पालन भी नहीं कर सकता। अचौर्याणुव्रती इस प्रकार की उन समस्त चोरियों का त्याग कर देता है, जिसके करने से राजदंड भोगना पड़ता है, समाज में अविश्वास बढ़ता है, प्रामाणिकता खंडित होती है तथा प्रतिष्ठा को धक्का लगता है। किसी को ठगना, किसी की जेब काटना, किसी का ताला तोड़ना, किसी को लूटना, डाका डालना, किसी के घर सेंध लगाना, श्रावकाचार :: 319 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy