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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir किसी की सम्पत्ति हड़प लेना, किसी का गड़ा धन निकाल लेना आदि सब स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। ____ अचौर्याणुव्रत को अस्तेयाणुव्रत भी कहते हैं। विभिन्न ग्रन्थों में इसका लक्षण इस प्रकार दिया गया है जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए परद्रव्य को नहीं हरता है, न दूसरों को देता है, सो स्थूल चोरी से विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत है 4 श्रावक राजा के भय आदि के कारण दूसरे को पीड़ाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तु को लेना यद्यपि छोड़ देता है, तो भी बिना दी हुई वस्तु के लेने से उसकी प्रीति घट जाती है, इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणुव्रत होता है। अचौर्यव्रत की पाँच भावनाएँ-शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद के भेद से ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं।" 1. शून्यागारावास-पर्वत की गुफा, वृक्ष की खोह (कोटर) आदि में निवास करना, 2. विमोचितावास-दूसरों के द्वारा छोड़े गये मकान आदि में रहना, 3. परोपरोधाकरण-दूसरों को उसमें आने से नहीं रोकना, 4. भैक्ष्यशुद्धि-आचारशास्त्र मार्ग अनुसार भिक्षाचर्या, 5. सधर्माविसंवाद–'यह मेरा है, यह तेरा है' इस प्रकार साधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना। इस प्रकार पाँचों भावनाओं में निरत होने के कारण उस अचौर्यव्रत में विशुद्धि आती है। ____ अचौर्याणुव्रत के अतिचार-अचौर्याणुव्रत का निर्दोष रूप से पालन करने के लिए पाँच प्रकार के अतिचारों का त्याग करके व्रत की विशुद्धि करनी चाहिए। स्तेनप्रयोग, चोरी के धन का ग्रहण, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपक व्यवहार ये पाँच अचौर्याणुव्रत के अतिचार हैं। 1. स्तेनप्रयोग-चोरी करने वाले को स्वयं प्रयोग (उपाय) बतलाना व दूसरों के द्वारा उसको चोरी में प्रयुक्त-प्रवृत्त कराना और उस चोरी की अथवा चोर की मन से प्रशंसा करना, चोरी करना अच्छा मानना ये-सब स्तेनप्रयोग हैं। 2. तदाहृतादान (चोरी के धन का ग्रहण)-चोरी करके लाये हुए धन-धान्यादिक को ग्रहण करना, खरीदना चौरहतादान कहलाता है, इसमें चोर को प्रेरणा भी नहीं करता है, अनुमति भी नहीं देता है, केवल चौर्यकर्म से लाये हुए पदार्थों को खरीदता है, यह भी दोष है। 3. विरुद्धराज्यातिक्रम-उचित न्यायभाग से अधिक भाग दुसरे उपायों से ग्रहण करना अतिक्रम कहलाता है। राजा के राज्य पालनोचित कार्य को राज्य कहते हैं। राज्य के नियमों के विरुद्ध राज्य परिवर्तन के समय अल्प मूल्य वाली वस्तुओं को अधिक मूल्य की बताना अर्थात् अल्प मूल्य प्राप्त वस्तु को महाकीमत में देने का प्रयत्न करना 320 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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