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पर वेतन आदि न देकर उसे कष्ट पहुँचाना आदि। ये सब बातें अन्नपाननिरोध के अन्तर्गत परिगणित होती हैं।
सत्याणुव्रत-लोक में सत्य व्यवहार का बड़ा महत्त्व है। सत्य व्यवहार करने वाले का सभी कोई विश्वास करते हैं। कुछ सामाजिकों की राय इस प्रकार की हो गयी है कि असत्य व्यवहार के बिना हमारे धन सम्पत्ति आदि की वृद्धि नहीं होती है, परन्तु जीवन का सर्वस्व धन-सम्पत्ति ही नहीं है। जीवन में सद्गुणों का अस्तित्व होना चाहिए। उसके बिना वह जीवन उद्योत को प्राप्त नहीं होता है। इसलिए जीवन कल्याण के लिए सत्यव्रती अथवा सत्याणुव्रती होना आवश्यक है।
जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है। सर्वार्थसिद्धि में कहा है कि गृहस्थ स्नेह और मोहादिक के वश से गृह-विनाश और ग्राम-विनाश के कारण असत्य वचन से निवृत्त है, इसलिए उसके दूसरा अणुव्रत है।" कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अनुसार-जो हिंसा का वचन नहीं कहता और न दूसरों की गुप्त बात को प्रकट करता है तथा हित-मित वचन बोलता है, सब जीवों को सन्तोषकारक वचन बोलता है, वह दूसरे सत्याणुव्रत का धारी है।
सत्यव्रत की भावनाएँ-क्रोधप्रत्याख्यान, लोभप्रत्याख्यान, भीरुत्वप्रत्याख्यान, हास्यप्रत्याख्यान और अनुवीचिभाषण,-ये पाँच सत्यव्रत की भावनाएँ हैं।"
यह मानव क्रोध से झूठ बोलता है, कभी लोभ से झूठ बोलता है, कभी भय से झूठ बोलता है, कारण न मिले तो कभी हँसी-विनोद के लिए झूठ बोलता है। इसलिए इन क्रोधादिक असत्य कारणों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करना चाहिए एवं सदा आगमानुसार निर्दोष वचन ही बोलना चाहिए। अथवा इसी प्रकार के वचनों का आश्रय मेरे द्वारा हो, ऐसी सतत चेष्टा रहनी चाहिए, तभी वह सत्य-वचन को बोलने में अभ्यस्त हो सकता है। सभी गुण-सम्पदाएँ सत्य-वक्ता में प्रतिष्ठित होती हैं। झूठे का बन्धुजन भी तिरस्कार करते हैं। उसके कोई मित्र नहीं रहते। जिह्वा-छेदन, सर्वधन-हरण आदि दंड उसे भुगतने पड़ते हैं। ___ सत्यव्रत के पाँच अतिचार-मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखनक्रिया, न्यासापहार
और साकारमन्त्रभेद के भेद से ये सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं। ____ 1. मिथ्योपदेश-उन्नति और कल्याण की क्रियाओं में कुछ का कुछ कहना मिथ्योपदेश है। उसी को अन्य आचार्यों ने परिवाद शब्द से व्यवहृत किया है।
अज्ञान व प्रमाद से मोक्ष की साधनभूत क्रियाओं में अन्यथा प्रवर्तन करने का उपदेश देना, सन्मार्ग में संशय आने पर कोई आकर वस्तुस्थिति की पृच्छना करे, तो अज्ञान से अन्यथा कह देना मिथ्योपदेश है। जानबूझकर तत्त्व का अन्यथा बोध करने वाले वचन का कहना तो असत्य अनाचार है, उसे सत्यव्रती कर नहीं सकता है।
318 :: जैनधर्म परिचय
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