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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 25. क्षितिशयन सामान्यतः पर्यंक, विस्तर आदि का सर्वथा वर्जन करके शुद्ध जमीन में शयन करना क्षितिशयन है। मूलाचार में कहा है- आत्मप्रमाण, असंस्तरित, एकान्त, प्रासुक भूमि में, धनुर्दंडाकार मुद्रा में, एक करवट में शयन करना क्षितिशयन मूलगुण है। 26. अदन्तघर्षण शरीर विषयक संस्कार श्रमण को निषिद्ध कहे गये हैं। अतः अँगुली, नख, दातौन, कलि (तृणविशेष), पत्थर और छाल- इन सबके द्वारा तथा इनके ही समान अन्य साधनों के द्वारा दाँतों को साफ न करना अदन्तघर्षण मूलगुण है। इसका उद्देश्य इन्द्रियसंयम का पालन तथा शरीर के प्रति अनासक्त भाव में वृद्धि करना है। 27. स्थित-भोजन शुद्ध-भूमि में दीवाल, स्तम्भादि के आश्रयरहित समपाद खड़े होकर अपने हाथों को ही पात्र बनाकर आहार ग्रहण करना स्थित-भोजन है। प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम के पालन हेतु जब तक श्रमण के हाथ-पैर चलते हैं अर्थात् शरीर में सामर्थ्य है, तब तक खड़े होकर पाणि-पात्र में ही आहार ग्रहण करते हैं, अन्य विशेष पात्रों में नहीं। 28. एकभक्त सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी व्यतीत होने के बाद तथा सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पूर्व तक दिन में एक बार एक बेला में आहार ग्रहण कर लेना एकभक्त मूलगुण है। इस प्रकार जैन साधुओं का जीवन रागद्वेष से रहित होकर दृढ़ संयम तथा तपस्या से परिपूर्ण होता है, जिसके फलस्वरूप वे आत्मानुभूति में रहकर सदैव आनन्दित रहते हैं और मोक्ष को प्राप्त करते हैं। साधु होने से पूर्व साधु बनने की योग्यता गृहस्थ जीवन को संयमित तथा वैराग्ययुक्त बनाकर व्रताचरण के पूर्वाभ्यास से ही आती है। अतः जैन आचारशास्त्र गृहस्थ के आचरण का भी विधान उतनी ही गम्भीरता से करता है जितनी गम्भीरता से श्रमणाचार का। 308 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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