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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शेष सात मूलगुण इस तरह पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिग्रह तथा उपर्युक्त छह आवश्यकइन सबको मिलाकर इक्कीस मूलगुणों का उल्लेख श्रमणाचार के प्रसंग में प्रस्तुत किया गया। शेष सात मूलगुण इस प्रकार हैं 22. लोच श्रमण के अट्ठाईस मूलगुणों में लोच बाईसवाँ मूलगुण है। जिसका अर्थ है- हाथ से नोचकर केश निकालना। लोक प्रचलित अर्थ में इसे ही केशलुंचन कहते हैं। केशलोच अपने आप में कष्ट-सहिष्णुता तथा सम्यभाव की उच्च कसौटी के और श्रमणों के पूर्ण संयमी जीवन का प्रतीक है। चूँकि केशों का बढ़ना स्वाभाविक है, किन्तु नाई या उस्तरे, कैंची आदि के बिना हाथों से ही उन्हें उखाड़कर निकालना श्रमण के स्ववीर्य, श्रामण्य तथा पूर्ण अपरिग्रही होने का प्रतीक है। इससे अपने शरीर के प्रति ममत्व का निराकरण तथा सर्वोत्कृष्ट तप का आचरण होता है। दीनता, याचना, परिग्रह और अपमान आदि दोषों के प्रसंगों से भी स्वतः बचा जा सकता है। सभी तीर्थंकरों ने प्रव्रज्या ग्रहण करते समय अपने हाथों से पंचमुष्ठि लोच किया था। 23. अचेलकत्व सामान्यतः 'चेल' शब्द का अर्थ वस्त्र होता है। किन्तु श्रमणाचार के प्रसंग में यह शब्द सम्पूर्ण परिग्रहों का उपलक्षण है। अत: चेल के परिहार से सम्पूर्ण परिग्रह का परिहार हो जाता है। इस दृष्टि से वस्त्राभूषणादि समस्त परिग्रहों का त्याग और स्वाभाविक नग्न(निर्ग्रन्थ) वेश धारण करना अचेलकत्व है। श्वेताम्बर जैन परम्परानुसार इसका अर्थ अल्प चेल (वस्त्र) मुनि का वेष है। 24. अस्नान जलस्नान, अभ्यंग स्नान और उबटन त्याग तथा नख, केश, दन्त, ओष्ठ, कान, नाक, मुँह, आँख, भौंह तथा हाथ-पैर इन सबके संस्कार का त्याग अस्नान नामक प्रकृष्ट मूलगुण है। वस्तुत: आत्मदर्शी श्रमण तो आत्मा की पवित्रता से स्वयं पवित्र होते हैं, अतः उन्हें बाह्य स्नान से प्रयोजन ही क्या? आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार-वृत्ति में कहा है कि श्रमण को स्नान से नहीं, अपितु व्रतों से पवित्र होना चाहिए। यदि व्रतरहित प्राणी जलावगाहनादि से पवित्र हो जाते तो मत्स्य, मगर आदि जल-जन्तु तथा अन्य सामान्य प्राणी भी पवित्र हो जाते, किन्तु ये कभी भी उससे पवित्रता को प्राप्त नहीं होते। अत: व्रत, संयम-नियम ही पवित्रता के कारण हैं। इन्हीं सब कारणों से श्रमण को स्नान आदि संस्कारों से सर्वथा विरत रहने तथा आत्मस्वरूप की प्राप्ति में उपयोग लगाए रखने के लिए अस्नान मूलगुण का विधान अनिवार्य माना है। जैन आचार मीमांसा :: 307 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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