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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म होते हुए, निश्चयात्मक आत्मिक धर्म के ही प्रकार हैं। भाव यह है, व्यवहार धर्म प्रारम्भिक सीढ़ी हैं, चरम धर्म-आत्म-धर्म को पाने की; पर वहाँ भी ध्यान जैनाचार्यों ने इस बात पर रखा कि कहीं से भी हम आत्म-धर्म को न भूल जाएँ। ऐसे ही आप जैन परम्परा में धर्म के सम्बन्ध में प्राप्त अन्य परिभाषाओं यथा-'अहिंसा परमो धर्मः', 'धम्मो दया विसुद्धों', 'जीवाणं रक्खणो धम्मो' को भी ले सकते हैं। चाहे हम अहिंसा के मार्ग पर चल रहे होते हैं, चाहे हम दया कर रहे होते हैं, चाहे हम जीवों की रक्षा कर रहे होते हैं, पर इस सब में जैन विचारकों की खास बात यह रही है कि जीवों की रक्षा करते हुए भी हम पर का भला नहीं कर रहे हैं, बल्कि वास्तव में तो हम स्वयं का भला कर रहे है। क्योंकि जब हम इतनी सजग चर्या कर रहे होते हैं कि एक छोटी-सी भी चींटी हम से न मरे, जल की बूंद में विद्यमान अनेक जीवराशि में से एक की भी जानेअनजाने हम से विराधना न हो जाए, तो हम सच में अपने प्रति सजग हुए होते हैं। हमारी एक-एक चर्या आत्म विशुद्धि के लिए होती है और तभी हम धर्ममार्ग पर चल रहे होते हैं। इसलिए जैनों की मान्यता में धर्म प्रयोग-धर्मा भी है और धर्म वस्तु-धर्मा भी है। हमें देखना इस बात को है कि आचार्यों ने धर्म की वह विशिष्ट परिभाषा किस दृष्टि से दी है! ___ इस पुस्तक में हमने केवल धर्म-दर्शन-अध्यात्म और आचार की ही बात नहीं की है, बल्कि इसमें हमने अलंकार शास्त्र, गणित, विज्ञान, कला, इतिहास, संस्कृति, आयुर्वेद, साहित्य और साहित्य परम्पराएँ एवं जैनों के वैश्विक सन्दर्भ की बात भी की है, इन सन्दर्भो/आलेखों को जब आप पढ़ेंगे, तो आपके अनुभव में यह बात स्वयं आएगी कि कलाकार की कलाकृति भी रंगों के धर्म के बिना विकसित नहीं होती। साहित्यकार की साहित्य दृष्टि भी शान्त रस की केन्द्रीयता के बिना चरम परिणति को ही प्राप्त न कर पाती है। __बात इतनी ही नहीं, संसार की कोई वस्तु या उसमें होने वाला परिणमन उस वस्तु के भीतर समाहित धर्म के बिना नहीं हो पाता, इसलिए यहाँ इस पुस्तक में हमने धर्म को बृहत्तर सन्दर्भ में देखने की कोशिश की है। 22 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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