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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सब रूपों में धर्म को देखती जरूर है, लेकिन जब वह परिभाषा करती है तो वह धर्म को केवल स्वभाव रूप ही मानती है और वही उसका उपादेय है एवं प्राप्य भी है। कुल मिलाकर सम्पूर्ण समष्टि धर्ममय है; या यूँ कहें कि समष्टि के इस लोक में रहना भी धर्म से है और परलोक में जाना भी धर्म से है । वस्तुओं के बिना न इहलोक है, न परलोक। जहाँ-जहाँ वस्तुएँ हैं, वहाँ-वहाँ धर्म है और इसीलिए वस्तु - आत्मा का धर्म ही परम धर्म है। I जैन विचारक ऐसी किसी परा सत्ता में विश्वास नहीं करते, जो संसार को या ब्रह्माण्ड को नियन्त्रित करती है । वे तो मानते हैं कि पूरा ब्रह्माण्ड द्रव्यमय है और द्रव्य अपने स्वभाव के अनुरूप परिणमनशील हैं, और उनकी पर्यायें परिवर्तनशील हैं। उनमें होने वाला परिणमन उनका स्वभाव है । उसके लिए किसी और कर्ता की आवश्यकता नहीं है। इसलिए उनके अनुसार संसार का कोई रचयिता भी नहीं और कोई नियन्ता भी नहीं । उनके मत में प्रत्येक वस्तु सर्व - तन्त्र स्वतन्त्र है । एक वस्तु दूसरे पर आश्रित नहीं और दूसरी पहले पर भी नहीं । इसलिए हर वस्तु का अपना स्वभाव उसका धर्म है । यही कारण है कि सब द्रव्यों के धर्म एक से नहीं। कोई आश्रय में सहायक बनता है, कोई गति में सहायक बनता है, कोई अपने स्वरूप में रमने में, तो कोई किसी और में; पर इन सब में खास बात यह है कि धर्म तो वस्तु का - वस्तुओं का ही होता है। यही कारण है कि वस्तु के स्वभाव को धर्म कहा है। 1 जैन जहाँ धर्म को स्वभाव रूप माना, वहीं धर्म के प्रयोग सन्दर्भों को लेकर भी धर्म की बहुविध व्याख्याएँ कीं । जहाँ ' चारित्तं खलु धम्मो' कहा, वहाँ भी यद्यपि आचार्य भगवान् चारित्र को ही धर्म कह रहे हैं, पर वह चारित्र भी ज्ञान और दर्शन के बिना नहीं होता, लेकिन यहाँ भाव यह है कि आत्म-स्वभाव में रमण-रूप जो चारित्र है, वही वस्तुत: धर्म है। चूँकि उसमें दर्शन और ज्ञान दोनों समाहित हैं और दर्शन और ज्ञान की पीठिका में सम्यक्त्व भी जुड़ा है, इसलिए वस्तुतः वहाँ सम्यक् रत्नत्रय रूप चारित्र को ही धर्म की प्राथमिक स्थिति के रूप में देखा गया और इसीलिए सम्भवतः दूसरे आचार्यों ने ' सद्दृष्टिज्ञान-वृत्तानि धर्मः' कह दिया । वहीं यह विचार भी उभरा कि इस रत्नत्रय रूप धर्म का मूलाधार दर्शन है, इसलिए आचार्य ने दर्शन की प्रधानता से 'दंसणमूलो धम्मो' कह दिया, पर खास बात यह है कि किन्हीं भी परिभाषाओं में न सम्यक्त्व को छोड़ा गया है, न दर्शन को छोड़ा गया है, न ज्ञान को छोड़ा गया है और न चारित्र को ही । कुल मिलाकर प्रयोग-सन्दर्भ की दृष्टि से ये तीनों परिभाषाएँ धर्म के रत्नत्रय रूप को ही प्रख्यापित करती हैं । हमने जैन परम्परा में यह भी पाया है कि वहाँ क्षमादि दशलक्षणों को धर्म माना गया है, पर गम्भीरता से आप क्षमा आदि धर्म के दशलक्षणों पर विचार करें, तो वे व्यावहारिक पुरोवाक् :: 21 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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