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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धम्मो'। वस्तु का जो स्वभाव है, वही धर्म है। भाव यह है कि धर्म वस्तु के साथ बँधा है। धर्म के बिना वस्तु नहीं और वस्तु के बिना धर्म भी नहीं, और इतना ही नहीं, वस्तु के बिना संसार भी नहीं और मोक्ष भी नहीं । इस प्रकार 'वस्तु का स्वभाव ही धर्म है' इस परिभाषा में धर्म की सम्पूर्णता दृष्टिगोचर होती है और सभी प्रसिद्ध लक्षण समाहित हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु का जो स्वभाव है, वही उसका धर्म है। जैसे लौकिकता में उद', 'ग के लिए-अग्नि का स्वभाव उष्णत्व है और वही उसका धर्म है। जो व्यक्ति वह जैसी है, वैसा ही जानता है, वह ज्ञानी है, सुखी है और जो व्यक्ति अग्नि को उष्ण न मानकर अन्य-रूप या शीतल मानता है, वह अज्ञानी है और तज्जन्य उष्णता को शीतल मानकर स्पर्श कर बैठता है, वह जलकर दुःखी ही होता है। इसी प्रकार जल का स्वभाव शीतल है और वही उसका धर्म है, मिश्री का स्वभाव मधुर है और वही उसका धर्म है, नमक का स्वभाव क्षार-गुण-युक्तता, नमकीन है और वही उसका धर्म है, मिर्च का स्वभाव तिक्तता है और वही उसका धर्म है, इत्यादि, इत्यादि। जो व्यक्ति इनको ऐसा ही है अर्थात् अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप ही जानता, मानता है, वही ज्ञानी है और जो अन्य प्रकार से जानता-मानता है, वही अज्ञानी है। संक्षेप में, ज्ञानी-अज्ञानी का यही स्वरूप है। वस्तु स्वभाव को धर्म मानने पर तेरा-मेरा के समस्त विवाद, झगड़े-फसाद स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं; क्योंकि वस्तु स्वभाव में किसी के लिए, किसी प्रकार का, या कोई भी पक्षपात अंशमात्र भी नहीं चलता। अग्नि गर्म है, वह सभी के लिए गर्म है, सर्वदा गर्म है, और सर्वत्र गर्म है, इत्यादि। ऐसा नहीं है कि हिन्दू के लिए अग्नि गर्म हो, तो मुसलमान के लिए ठण्डी हो या बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष के लिए भिन्न रूप से परिवर्तित हो जाए। इसी तरह ऐसा भी नहीं है कि आज गर्म है, कल ठण्डी थी या कल ठण्डी हो जाएगी। इसीप्रकार ऐसा भी नहीं है कि हिन्दुस्तान में तो अग्नि गर्म हो, पर पाकिस्तान में ठण्डी या अन्य रूप हो जाए। ___ हमारी परम्परा में कहीं धर्म को कर्तव्य के रूप में, तो कहीं विधि-व्यवस्था के रूप में, तो कहीं प्रथा के रूप में, कहीं धार्मिक कृत्य के रूप में, कहीं पुरुषार्थ के रूप में, कहीं अधिकार के रूप में, कहीं नीतिशास्त्र के रूप में और कहीं लोक-नियन्ता आदि के रूप में देखा गया है। परम्परा में यह भी कहा गया है कि ध्रियते लोकोऽनेन अथवा धरति लोकं वा इति धर्मः। इन दोनों परिभाषाओं में धर्म की केन्द्रीयता की बात है। दोनों लोकनियन्ता के रूप में धर्म को देखती हैं, पर दोनों का लोक- नियन्ता रूप धर्म एक जैसा नहीं है। 'ध्रियते लोकोऽनेन' में धर्म साधन है, लोक की धरणीयता का। जबकि 'धरति लोकं वा' में धर्म धारण करने वाला कर्ता है। दोनों में विभक्ति का ही अन्तर नहीं है, बल्कि स्वरूप का अन्तर भी है-एक में करण है तो दूसरे में कर्ता; पर जैन परम्परा इन 20 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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