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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरोवाक् प्रो. वृषभप्रसाद जैन धर्म भारतीय जीवन का अभिन्न अंग रहा है, बल्कि यूँ कहा जाए कि धर्म के बिना भारतीय जीवन अधूरा है, तो कोई अत्युक्ति न होगी।... पर भारतीय धर्म 'रिलीजन' का पर्याय होकर कभी नहीं रहा है और 'इथिक्स' (नीतिशास्त्र) मात्र का हिस्सा होकर भी नहीं। हमारे यहाँ धर्म ने अन्तरंग की परिशुद्धि की बात भी की है, इसके साथ ही साथ बाह्य आचार की शुद्धि की भी बात की है। कुल मिलाकर जहाँ एक ओर धर्म शुद्धिकरण का पर्याय होकर रहा है, वहीं दूसरी ओर स्वभाव होकर भी। कुछ भारतीय चिन्तक 'यद् धार्यते तद् धर्मः' अर्थात् जो धारण किया जाता है, वह धर्म है। वहीं कुछ और चिन्तक 'येन धार्यते तद् धर्मः' जिसके द्वारा धारण किया जाता है, वह साधनभूत धर्म है। इन दोनों परिभाषाओं में धारण करने पर बल है। कुछ और चिन्तक कहते हैं – 'यद् आचर्यते, तद् धर्मः' जो आचरित किया जाता है या आचरण में लाया जाता है, वह धर्म है। भाव यह है कि हमारे आचार का नियन्ता धर्म है। धर्म न हो, तो आचार का नियन्त्रण न हो, और आचार का नियन्त्रण न हो, तो दुराचार या कदाचार भी धर्म होने लग जाए, जिसकी अनुमति न हमारे शास्त्र देते हैं और न पश्चिम के शास्त्र ही। पश्चिम में धर्म (Religion) इथिक्स' का अंग है। रिलीजन की व्याख्या करते हुए पश्चिमी विचारक रिलीजन को उस परा सत्ता के विश्वास के रूप में भी देखते हैं, जो संसार को नियन्त्रित करती है। कुछ रिचुअल्स (Rituals) भी धर्म के अंग हैं और उनके यहाँ धर्म 'रिचुअल्स' के साथ अधिकांशत: बँधा है। हमारे यहाँ धर्म वैसा नहीं है। धारण करने में भी खास बात यह है कि धारण करने वाला भी धर्म को उसकी चरम परिणति में आत्मसात करके ही रहता है। ___ जैन विचारक पहले पैराग्राफ में उल्लिखित धर्म के स्वरूप से सहमत नहीं होते। वे तो कहते हैं कि धर्म कोई बाहर से ओढ़ी जाने वाली वस्तु नहीं है। धर्म तो वस्तु का स्वभाव है। धर्म भीतर की वस्तु है, इसलिए धर्म निज की निज में परिणति है, क्योंकि धर्म के अनुसार पर की निज में परिणति हो नहीं सकती और निज की भी पर-रूप भी नहीं; इसलिए वह धर्म हो भी नहीं सकता। यही कारण है, कि हमारी परम्परा कहती है -'वत्थु सहावो पुरोवाक् :: 19 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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