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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir काल की अवधारणा और काल-चक्र प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, राकेश जैन शास्त्री प्रायः काल को लेकर हम दो पारिभाषिकों के साथ बात करते हैं। ये पारिभाषिक हैं'काल' और 'समय'। कुछ लोग या कुछ विचारक इन पारिभाषिकों को एक मानते हैं और दूसरे को उसका पर्यायवाची, पर वहीं जैन विचारक इन्हें एक नहीं मानते, वे इन दोनों में अन्तर देखते हैं तथा वे मानते हैं कि काल के भीतर समय की सत्ता है, काल नैरन्तर्य है और समय एक कालाणु से दूसरे कालाणु तक की यात्रा का अन्तराल । इसीलिए वे काल को अनन्त समय वाला मानते हैं। बात इतनी ही नहीं, वे काल की अवधारणा को लोकाकाश की अवधारणा से सम्बद्ध मानते हैं, पर यहीं खास बात यह है कि काल और समय-पारिभाषिकों की चर्चा करते हुए जैन विचारक Tense और Time के पर्यायवाची के रूप में काल और समय को नहीं देखते। काल यद्यपि द्रव्य है, फिर भी इसकी अवधारणा Abstraction पर आधारित है। जैनधर्म-विज्ञान में लोक आकाशमय माना गया है। आकाश नहीं, तो लोक नहीं और इसीलिए जैनधर्म-विज्ञान में लोकाकाश की बात की गई है तथा यह कहा गया है कि आकाश प्रदेशों का बना होता है। आकाश के प्रदेश न हों तो आकाश न हो और इस प्रकार लोकाकाश भी न हो और इसी क्रम में काल की अवधारणा को भी अवकाश न मिले। 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है कि लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने कालाणु हैं और वे निष्क्रिय हैं। भाव यह है, कि लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित है; क्योंकि शास्त्र-वचन है-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर जो रत्नों की राशि के समान अवस्थित हैं, उन्हें कालाणु जानों। ये कालाणु रूपादि गुणों से रहित होने के कारण अमूर्त हैं। (कुछ पाठ में असंख्य हैं) ये कालाणु स्वयं में अखण्ड हैं और मणिनुमा रत्नों की ढेरी के समान हैं । विभिन्न रूपों में गिनी जाने वाली (पल, क्षण, मिनिट, घंटा, दिन, रात, सप्ताह, माह, वर्ष आदि) काल रूपी सत्ता की लघुतम इकाई हैं; क्योंकि मूल रूप में यह काल द्रव्य अणु रूप है। जो शाश्वत काल है, वह वर्तना रूप है और शाश्वत काल वह निश्चय काल है और जो व्यवहार काल है, उसके असंख्य नामकरण व भेद आदि हैं। उपर्युक्त के अतिरिक्त भूत, भविष्यत्, वर्तमान, श्वस्तनी, ह्यस्तनी आदि की भी गणना) काल के प्रसंग को लेकर जहाँ गणना की बात है, जैनाचार्य उसे व्यवहारकाल मानते काल की अवधारणा और काल-चक्र :: 23 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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