SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीव द्रव्य में ज्ञान, दर्शन, चेतनादि अनन्तगुण पाये जाते हैं। ये तो सभी विशिष्ट गुण हैं, जो जीवादि में अपने-अपने अलग विशिष्ट होते हैं। कुछ गुण ऐसे भी हैं, जो सभी द्रव्यों में समानरूप से पाये जाते हैं, जैसे अस्तित्व, वस्तुत्व आदि, वे सामान्य गुण कहलाते हैं। जैसे विशिष्ट गुण प्रत्येक वस्तु में अनन्त होते हैं, वैसे ही सामान्य गुण भी अनन्त होते हैं, फिर भी सामान्य गुणों की संख्या मुख्य रूप से छह प्रसिद्ध है - 1. अस्तित्व, 2. वस्तुत्व, 3. द्रव्यत्व, 4. प्रमेयत्व, 5. अगुरुलघुत्व, 6. प्रदेशत्व। उक्त गुण सभी द्रव्यों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं, इसीलिए सामान्य गुण कहलाते 1. अस्तित्व–'अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्' । -आलापपद्धति अर्थात् 'अस्ति' अर्थात् 'है-पने' के भाव को अस्तित्व कहते हैं। अस्तित्व अर्थात् सद्पत्व। जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता और न ही किसी से उसका उत्पाद होता है, उस शक्ति को अस्तित्वगुण कहते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि द्रव्य अपने स्वभाव से अनादि-अनन्त काल तक अपनी-अपनी सत्ता में विद्यमान रहता है, अर्थात् जीव अनादि से जीव ही है, पुद्गल भी अनादि से पुद्गल ही है। जीव कभी पुद्गल नहीं होता, नहीं हो सकता तथा पुद्गल भी कभी जीव नहीं होता, नहीं हो सकता। जीव जीव है, था और रहेगा। ऐसे स्वरूप सत्ता का स्वतन्त्र, शाश्वत अस्तित्व जानकर भयादि दुर्गुणों से बच सकते हैं। 2. वस्तुत्व-'वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम्'-स्याद्वादमंजरी 5/30/6 अर्थात् अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तु का लक्षण है। गुरु गोपालदासजी वरैया-कृत लघु जैन सिद्धान्त प्रवेशिका' में प्रसिद्ध वस्तुत्व गुण का स्वरूप इस रूप में उल्लिखित है-“जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थक्रियाकारित्व (प्रयोजनभूतक्रिया) पाया जाए, उसे वस्तुत्व गुण कहते हैं।" अर्थात् अपनी-अपनी प्रयोजनभूत क्रिया का कर्तापना ही वस्तु का वस्तुत्व-गुण है। इसी की मुख्यता से द्रव्य को वस्तु कहा जाता है। प्रत्येक वस्तु अपने-अपने कार्य स्वयं ही करती है, अन्य कोई कर्ता नहीं। मात्र संयोग में सहयोगी पने का (निमित्तपने का) आरोप होता है। अन्य वस्तुएँ निमित्त कारण तो हैं, पर कर्ता नहीं। वास्तव में, जिस वस्तु में कार्य सम्पन्न हुआ हो, वही उस कार्य का कर्ता होता है, क्योंकि ‘कर्ता-कर्म भाव या परिणाम-परिणामी भाव एक द्रव्य में ही हो सकता है। '(पं. जयचन्द छावड़ा, समयसार गाथा 99 का भावार्थ) अर्थात् जीव के भावों का कर्ता जीव ही है, पुदगल नहीं तथा पुद्गल के भावों का कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं। एकदूसरे के कार्य में अन्य को सहयोगी देखकर निमित्त कहा जाता है। वह सहयोगी है, कर्ता नहीं। जैसे- मिट्टी से निर्मित घट के ज्ञान का कर्ता जीव है, घट का कर्ता तो स्वयं मिट्टी 260 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy