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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I प्रवृत्ति मति, अवधि, मन:पर्यय ज्ञानों द्वारा ज्ञात सीमित अर्थ के अंश में नहीं होती है तो क्या नयको समस्त पदार्थों के समस्त अंशों में प्रवृत्त होने वाले केवलज्ञान का अंश माना जा सकता है, इसका समाधान आचार्य विद्यानन्दि द्वारा यह दिया गया है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष एवं स्पष्टरूप से पदार्थों के समस्त अंशों का साक्षात्कार करता है नय परोक्ष - अस्पष्ट रूप से समस्त पदार्थों के अंशों का एकैकशः निश्चय करता है । इसलिए नय केवलमूलक नहीं हैं। वह मात्र परोक्ष श्रुतप्रमाण- मूलक है। आचार्य समन्तभद्र ने 'स्याद्वाद' अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा गृहीत अनेकान्तात्मक पदार्थ के धर्मों का पृथक-पृथक कथन करने वाले ज्ञान को नय कहा है। आलापपद्धति में श्रुतप्रमाण के विकल्पों को नय कहा गया है। नय को श्रुतप्रमाण का विकल्प या अंश मानने वाले अनेक आचार्य हैं । तात्पर्य यह कि श्रुतज्ञान द्वारा जाने गये वस्तु के अंश या धर्म को ग्रहण करने वाला नय है। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है कि 'परिशुद्ध नयवाद केवल श्रुतप्रमाण का साधक बनता है और यदि वह गलत रूप से रखा जाए, तो दोनों पक्षों का घात होता है । ' श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में आचार्यों ने यह भी लिखा है कि श्रुत के दो उपयोग होते हैं - स्याद्वाद और नय । वस्तु के सम्पूर्ण कथन को स्याद्वाद एवं वस्तु के एकदेश-कथन को नय कहते हैं । यही कारण है कि आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान के बराबर माना है, दोनों में अन्तर मात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का बताया है। इससे स्पष्ट है कि श्रुतज्ञान के उपयोग में भी स्याद्वाद-रूप- प्रमाण का अंश नय है। ज्ञात हो कि आचार्य अकलंक ने श्रुत के तीन भेद किये हैं- प्रत्यक्ष निमित्तक, अनुमान निमित्तक तथा आगम निमित्तक । जैनतर्कवार्तिककार प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत को न मानकर परोपदेशज और लिंगनिमित्त ये दो ही श्रुत मानते हैं । वक्ता या ज्ञाता का अभिप्राय : नय जैसा कि पूर्व में कहा गया है कि ज्ञाता व वक्ता का अभिप्राय नय है । द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के विषय में ज्ञाता का अभिप्राय भेद व अभेद को लेकर होता है । उदाहरणार्थ एक ज्ञानी वस्तु में स्थायित्व देखकर उसे नित्य कहता है, वस्तु में होने वाले परिवर्तन आदि को देखकर दूसरा उसे अनित्य कहता है । ये विभिन्न अभिप्राय नय या दुर्नय अथवा नयाभास कहे जाते हैं । जब अपने-अपने अभिप्रायों को स्वीकार करते हुए भी दृष्टिभेद से दूसरे के अभिप्राय का निराकरण नहीं करते तब दोनों के ही उन अभिप्रायों को नय कहा जाता है; इसके विपरीत एकांगी अभिप्राय नयाभास या दुर्नय है। 1 नय : सम्यग्दर्शन एवं पुरुषार्थ का हेतु नय गौण-मुख्यरूप से एक-दूसरे की अपेक्षा करके सम्यग्दर्शन के हेतु हैं । जिस प्रमाण, नय और निक्षेप :: 229 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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