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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है, इन्द्रियसन्निकर्षादि द्वारा नहीं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन पाँचों ज्ञानों को प्रमाण कहा गया है और उनसे अधिगम होता है। नय से भी प्रमाण की तरह अर्थाधिगम होता है। आचार्य समन्तभद्र ने भी प्रमाण और नय दोनों को वस्तु का प्रकाशक कहा है। समुदायविशेष प्रमाणम् अवयव-विषया नया: आचार्य अकलंकदेव के इस कथन से भी यह सिद्ध है। यहाँ यह विचारणीय है कि ज्ञान नय-रूप है या नहीं, यदि ज्ञान-रूप है, तो क्या वह प्रमाण है या अप्रमाण? 'यदि प्रमाण है तो उसे प्रमाण से अलग अर्थाधिगम का उपाय बताने की क्या आवश्यकता थी, यदि अप्रमाण है, तब उससे यथार्थ अधिगम कैसे हो सकता है, यदि नय ज्ञानरूप नहीं है, तब उसे सन्निकर्ष आदि की तरह ज्ञापक स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन सभी प्रश्नों का समाधान 'नय प्रमाण के अंश हैं'-इस कथन से हो जाता है। इसके अनुसार नय न प्रमाण हैं और न अप्रमाण-अपितु ज्ञानात्मक-प्रमाण का एकदेश हैं। जैसे-समुद्र से लाया गया घट-भर-जल न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रैकदेश है। यदि उसे समुद्र माना जाता है, तो शेष जल असमुद्र कहा जाएगा अथवा समुद्रों की कल्पना करना पड़ेगी। यदि उसे असमुद्र कहा जाता है, तो शेषांशों को भी असमुद्र कहा जाएगा। इस स्थिति में समुद्र का व्यवहार कहीं भी नहीं हो सकेगा और समुद्र का ज्ञाता भी किसी को नहीं कहा जा सकेगा। अत: नय न प्रमाण है, न अप्रमाण अपितु प्रमाणैकदेश है। श्रुतप्रमाण का अंश : नय ज्ञान स्वाधिगम का हेतु होने के कारण प्रमाण-रूप है एवं वचन पराधिगम का हेतु होने के कारण नय-रूप है, जो दूसरे के लिए स्याद्वादनयसंस्कृत जीवादिक की प्रतिपर्याय रूप माना गया है। पूज्यपाद ने इसको स्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्रतिपत्ति के भेद से प्रमाण स्वार्थ और परार्थ के रूप में दो प्रकार का है। श्रुतज्ञान को छोड़कर शेष मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान स्वार्थप्रमाण हैं, परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकार का है। ज्ञानात्मक श्रुत-प्रमाण को स्वार्थ-प्रमाण और वचनात्मक श्रुतप्रमाण को परार्थ-प्रमाण कहते हैं। परार्थप्रतिपत्ति का एकमात्र साधन वचन होने से मति आदि चारों ज्ञान वचनात्मक नहीं हैं। श्रुतज्ञान द्वारा स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रतिपत्तियाँ होती हैं। ज्ञाता व वक्ता का वचनात्मक-व्यवहार उपचार से परार्थ-श्रुतप्रमाण है। श्रोता को जो वक्ता के शब्दों से बोध होता है, वह वास्तविक परार्थ-प्रमाण है। ज्ञाता या वक्ता का जो अभिप्राय रहता है और अंश-ग्राही है, वह ज्ञानात्मक स्वार्थ-प्रमाण है। इस तरह ज्ञानात्मक स्वार्थ श्रुत-प्रमाण और वचनात्मक परार्थ श्रुत-प्रमाण दोनों नय हैं। यही कारण है कि दर्शनग्रन्थों में ज्ञान-नय और वचन-नय के भेद से दो प्रकार के नयों का भी विवेचन प्राप्त होता है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि नय की 228 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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