SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रकार तन्तु आदिक पुरुष की अर्थक्रिया और साधनों की सामर्थ्य से यथायोग्य निवेशित कर दिये जाने पर पट आदि की संज्ञा को प्राप्त होते हैं। उसी प्रकार ये नय भी स्वतन्त्र रहने पर अपेक्षा-बुद्धि से कार्यकारी ही हैं, क्योंकि पूर्व-पूर्व का नय उत्तर-उत्तर के नय का हेतु बनकर कार्यकारी होता है, परस्पर-निरपेक्ष-अंश पुरुषार्थ के भी हेतु नहीं बन सकते, वे परस्पर सापेक्ष होकर ही व्यवहार में साधक हो सकते हैं, क्योंकि उस रूप में उनकी उपलब्धि होती है। नय के भेद वस्तु अनन्तधर्मात्मक होने से उसके विषय में तीर्थंकरों के वचन अभेदभेदात्मक होते हैं। परिस्थिति और शक्ति के अनुसार वस्तु के किसी धर्म के विषय में हम किस दृष्टि का आश्रय लेते हैं, वही दृष्टि नय-भेद के मूल में दृष्टिगोचर होती है। दृष्टिभेद ही नयभेद का प्रमुख कारक है। जितनी दृष्टियाँ एवं अभिप्राय हो सकते हैं, उतने नय हो सकते हैं। आचार्यों ने नय के एक से लेकर असंख्यात विकल्प बताये हैं। वस्तुतः नय के भेद प्रभेदों की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। सत्, एक, नित्य, वक्तव्य और इनके विपरीत असत्, अनेक, अनित्य, अवक्तव्य आदि विभिन्न दृष्टियाँ नय हैं। ये सर्वथा-रूप से वस्तु-तत्त्व को प्रदूषित करते हैं एवं स्यात्युक्त या कथंचित्-रूप से उसको पुष्ट करते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्यों को यह कहना पड़ा कि जितने प्रकार के वचन-मार्ग हैं, उतने ही प्रकार के नयवाद हैं। जब वस्तु अनन्तधर्म वाली है और नय उसके प्रत्येक धर्म का ग्राही हो सकता है, तब नय अनन्त भी कहे जाएँ, तो अत्युक्ति नहीं होगी। निश्चित रूप से नय-व्यवस्था जैनदर्शन की अद्भुत देन है। वस्तु-तत्त्व का ऐसा विवेचन अन्यत्र द्रष्टव्य नहीं है। भेदाभेदात्मक-समग्र-दृष्टियों को आधार बनाकर आचार्यों ने इनसे क्रमशः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो मूल नय विकसित किये। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय आचार्य अकलंक ने लिखा है कि 'द्' धातु से 'य' प्रत्यय संयुक्त करने पर द्रव्य की कर्ता और कर्म में निष्पत्ति बन जाती है। यद्यपि पर्याय या उत्पाद-व्यय उस द्रव्य से अभिन्न होते हैं। तथापि कर्तृ और कर्म में भेद विवक्षा करके 'द्रवति गच्छति' यह निर्देश बन जाता है। जिससे द्रव्य का स्वरूप यह घटित होता है कि 'जो स्व और पर कारणों से होने वाली उत्पाद और व्यय रूप पर्यायों को प्राप्त हो तथा पर्यायों को जो प्राप्त हो जाता है, वह द्रव्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव-रूप बाह्य प्रत्यय रहने पर भी द्रव्य में स्वयं उस पर्याय की योग्यता न हो, तो पर्यायान्तर उत्पन्न नहीं हो 230 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy