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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्तवाद बनाम स्याद्वाद डॉ. जितेन्द्र बी. शाह अनेकान्तवाद का प्रारम्भिक स्वरूप कैसा रहा होगा यह कहना अत्यन्त कठिन है तथापि आगमग्रन्थों में प्राप्त उल्लेखों के आधार पर कुछ चिन्तन अवश्य किया जा सकता है। प्राचीन आगम सूत्रकृतांगसूत्र में साधु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भिक्खू विभज्जवायं च वागरेज्जा ॥1.4.22 ॥ अर्थात् साधु को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए। विभज्यवाद का अर्थ हमें टीका ग्रन्थों से प्राप्त होता है और इसी शब्द का प्रयोग बौद्ध त्रिपिटक ग्रन्थों में भी हुआ है । अतः इसका अर्थ समझने में वे ग्रन्थ भी सहायक हो सकते हैं । सर्वप्रथम हम आगमग्रन्थों के समकालीन त्रिपिटक ग्रन्थों में प्राप्त विभज्यवाद की चर्चा करेंगे। दीघनिकाय एवं अंगुत्तर निकाय में विभज्यवाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं । मज्झिमनिकाय (सुत्त. 99 ) में शुभ माणवक के एक प्रश्न के उत्तर में भगवान बुद्ध ने कहा है कि हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं हूँ | माणवक का प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ आराधक होता है, प्रव्रजित आराधक नहीं होते हैं । इस विषय में आपकी क्या राय है ? इसका उत्तर देते हुए भगवान बुद्ध ने कहा है कि – गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्ग का आराधक नहीं है और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं है। किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं। भगवान बुद्ध ने गृहस्थ या त्यागी की आराधकता एवं अनाराधकता में अपेक्षा या कारण को लेकर दोनों में आराधकता और अनाराधकता को सम्भव बताया है अर्थात् प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है न कि एकांशी 'हाँ' या 'ना' में । इसी के आधार पर वे स्वयं को विभज्यवादी घोषित करते हैं और कहते हैं कि मैं एकांशवादी नहीं हूँ। इस प्रकार अपने को विभज्यवादी कहते हैं, तथापि वे सर्वदा विभज्यवादी नहीं थे। जहाँ हो सकते थे वहीं विभज्यवाद का अवलम्बन लेते थे । जैन व्याख्याकारों ने विभज्यवाद की विभिन्न व्याख्याएँ की हैं। हमें चार व्याख्याएँ प्राप्त होती हैं जो इस प्रकार हैं ---- (1) भजनीयवाद अर्थात् किसी विषय में शंका होने पर भजनीयवाद द्वारा यूँ कहना अनेकान्तवाद बनाम स्याद्वाद :: 187 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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