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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org विकास करते हैं । दार्शनिक रूप में अनेकान्तवाद जैन परम्परा में आत्मा की प्रकृति-विषयक शिक्षा में निहित है । सांख्य, योग एवं वेदान्त परम्पराएँ आत्मा के चिर-स्थायी तथा अपरिवर्तनशील चरित्र पर बल देते हैं। बुद्ध की परम्पराएँ चेतना के निरन्तर परिवर्तनशील स्वरूप पर बल देती हैं। जैनधर्म कहता है कि दोनों वास्तविक हैं और इन्हें निरस्त नहीं किया जा सकता। आत्मा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आन्तरिक स्वरूप और इसकी निरन्तर परिवर्तनशील कर्मावस्थाओं की अनन्तता को नकारा नहीं जा सकता। आत्मा को सभी प्राणियों का स्वरूप मानते हुए जैन दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि सभी वस्तुओं के अनेक पक्ष हैं, जिन्हें सभी दृष्टिकोणों से समान वैधता दी जा सकती है 1 186 :: जैनधर्म परिचय एक अर्थ में मैं वही व्यक्ति हूँ, जो कुछ क्षण पहले था । यह भी कह सकता हूँ कि मेरे शरीर की आत्मा वही है, जो अनेक रूपों में सदैव थी । यह समान रूप से सत्य है कि मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ, जो कुछ क्षण पहले था । मेरे चेतन का अंश परिवर्तित हो गया है। मुझे वस्तुओं के विषय में ऐसे अनुभव हुए हैं, जो पहले कभी नहीं हुए हैं । अतः आत्मा की गम्भीर प्रकृति के प्रश्न पर कई परम्पराओं के उपदेश बिना अन्तर्विरोध के भय के सत्य हो सकते हैं, क्योंकि उनका दावा एक जटिल अस्तित्व के विभिन्न पक्षों पर केन्द्रित है। अनेकान्तवाद के सिद्धान्त में विश्व में व्याप्त विभिन्न प्रतिद्वन्द्वी धार्मिक परम्पराओं के शान्ति-पूर्ण सह-अस्तित्व एवं पारस्परिक सम्मान के दर्शन का आधार बनने की सम्भावना है । यदि सभी मतों के केन्द्र में सत्य एवं वास्तविक अन्तर्दृष्टि की खोज सम्भव है, तो हम इन परम्पराओं के सिद्धान्तों का अधिक सही मूल्यांकन कर सकते हैं। यदि हम विभिन्न मतों और जीवन पद्धतियों के अनुयायियों के बीच परस्पर सामंजस्य चाहते हैं, तो यह आवश्यक है कि जब तक कोई परम्परा यह विश्वास करती है कि वही सत्य - धर्मा है, तब तक वह अन्य परम्पराओं को क्षीण करती हुई स्वयं को उनके स्थान पर अवस्थित करना चाहती है। यह केवल कष्ट को जन्म देती है— चाहे वह हमारे दृष्टिकोण पर आक्रमण के रूप में भावनात्मक हो या अपने से भिन्न लोगों का विनाश करने का प्रयास हो । अनेकान्तवाद एक बेहतर विश्व, जिसमें हम अन्य दर्शनों और धर्मों की बुद्धिमत्ता एवं सुन्दरता का आदर करते हों, बनाने के लिए एक आवश्यक उपादान है। For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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