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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनेकान्त जैफ्री डी. लौंग भारत की धार्मिक एवं दार्शनिक परम्पराएँ विश्व भर में विविधता के विषय में अपनी सूक्ष्मदर्शिता तथा मूल्यांकन के लिए सर्वविदित हैं। श्री रामकृष्ण के शब्दों में "यतो मत, ततो पथ।" ऋग्वेद में कहा गया है-"एकं सत् बहुधा विप्रा वदन्ति"। भगवद्गीता (4:11) में लिखा है-"प्राणी जिस भी रूप में मेरी शरण में आते हैं, मैं उनका उसी रूप में स्वागत करता हूँ। सभी मार्ग मुझ तक पहुँचते हैं।" सभी भारतीय परम्पराओं में से जैन परम्परा ने सत्य एवं विविधता के विषय पर विधिवत् विचार किया जान पड़ता है। अनेकान्तवाद, जिसका अनुवाद हम बहु-आयामी शिक्षा या बहु-पक्षीय जटिल यथार्थ के रूप में करते हैं, अहिंसा के साथ-साथ जैन-मार्ग का केन्द्रीय सिद्धान्त है। इस अर्थ में हम अहिंसा को विचार, शब्द एवं कर्म में अहिंसा तथा भौतिक पदार्थों और स्थितियों के लोभ या मोह की अनुपस्थिति- अपरिग्रह के रूप में देख सकते हैं। ____ हम अनेकान्तवाद का स्रोत ऐतिहासिक रूप से भगवान महावीर के उपदेशों में खोज सकते हैं। जिस प्रकार इतिहास के सभी युगों में विद्वान अत्यन्त गहन एवं कठिन प्रश्न"क्या ब्रह्माण्ड अनादि और अनन्त है या इसका कोई आदि है?" से जूझते रहे हैं, उसी प्रकार महावीर ने भी इस प्रश्न का सामना किया। "क्या हमारा अस्तित्व शारीरिक मृत्यु के बाद भी रहता है या यह मृत्यु के समय समाप्त हो जाता है?" इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर में जैन ग्रन्थों में महावीर को किसी एक मत का हठधर्मी से पक्ष न लेते हुए दोनों मतों का प्रतिपादन करते दिखाया गया है। एक अर्थ में वे कहते हैं कि ब्रह्माण्ड अनादि है, क्योंकि यह सदा से अस्तित्व में रहा है। दूसरे रूप में ब्रह्माण्ड का आदि है, क्योंकि यह कई कल्पों से गुजरता है, जिनके निश्चित आदि और अन्त हैं। एक अर्थ में शारीरिक मृत्यु के पश्चात् भी हमारा अस्तित्व रहता है, क्योंकि आत्मा अपनी यात्रा पर गतिशील रहती है। एक अन्य अर्थ में हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है, क्योंकि हम उसी रूप में नहीं रहते। बाद की शताब्दियों में महावीर के पद-चिह्नों पर चलते हुए जैन दार्शनिक इस प्रकार के प्रश्नों के विषय में उनके दृष्टिकोण की निर्मिति करते हुए अनेकान्तवाद की शिक्षा का अनेकान्त :: 185 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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