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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अपेक्षा का प्रयोग इस सम्बन्ध में व्याकुलता रहित कर देता है। वही एक व्यक्ति अपने भाई की अपेक्षा भाई है। पुत्र की अपेक्षा पिता है, माता-पिता की अपेक्षा पुत्र है, पत्नी की अपेक्षा पति है, सास-श्वसुर की अपेक्षा दामाद, बहनोई की अपेक्षा साला, मामा की अपेक्षा भानजा एवं ऐसे ही अनेक लक्षणों वाला है। अपेक्षा लगा देने पर कोई विवाद नहीं होता। यदि पुत्र अपने दादाजी से कहे कि आपने मेरे पापा को बेटा कैसे कहा तो विसंवाद होता है, एकान्त होता है। वहाँ लोक के समझदार पुरुष कहते हैं कि जिसको मैं अपना बेटा कहता हूँ उस में से तेरा पापा पना बिलकुल नष्ट नहीं हुआ है, और अन्य लक्षण भी मौजूद हैं। संशय के लिए विषय नहीं रहता। वह सब अनैकान्तिक व्यवस्था की यथार्थ समझ का फल है। बहु आयामी पदार्थ को जानने के लिए हमें अपनी दृष्टि भी बहु आयामी बनानी होगी। विश्व शान्ति के लिए यह व्यवस्था अमोघ मन्त्र है। सभी पदार्थ अपने-अपने अस्तित्व में सुरक्षित रहें और अन्य का प्रवेश किसी में भी न हो ऐसी विश्व की अद्भुत व्यवस्थित व्यवस्था है। किसी भी अन्य की दखलन्दाजी किसी भी वस्तु में चलती तो है नहीं, मात्र अज्ञान से चलाने की कोशिश होती है, यही कल्पना है, दुःख है, संसार है। सभी वस्तुओं की स्वतन्त्र सत्ता आदि की स्वीकृति अनेकान्त व्यवस्था की समझ से ही सम्भव है। तब दुःख, कल्पनाएँ, संसार का स्वयमेव नाश हो जाए। प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को निर्देशित करते हुए जैनदर्शन में स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक वस्तु जैसे स्वद्रव्यादि की अपेक्षा से अस्ति स्वरूप है, वैसे ही परद्रव्यादि की अपेक्षा से अस्ति स्वरूप नहीं है, क्योंकि एक द्रव्य में अन्य द्रव्य (स्वजातीय या विजातीयों) का अत्यन्ताभाव है। यदि ऐसा न स्वीकार किया जाए तो न तो प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र अस्तित्व ही सिद्ध होता है और न ही प्रत्येक जीव की बन्ध-मोक्ष व्यवस्था ही बन सकती है। स्वरूप से सत् तथा पररूप से असत् इत्यादि रूप अनेकान्त की प्रतिष्ठा ही भेदविज्ञान मूलक है। और भेदविज्ञान जैनदर्शन का प्राण है। उदाहरण के लिए जब यह कहा जाता है कि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है, तब उसका अर्थ यह भी होता है कि रत्नत्रय को छोड़कर अन्य कोई मोक्षमार्ग नहीं है। इसे और भी खुलासा समझें तो यह भी कहा जा सकता है कि यद्यपि जीव अनन्तधर्मात्मक पदार्थ है, परन्तु मोक्षमार्गता तो रलत्रय परिणत आत्मा में ही सम्भव है, अन्य अनन्त धर्मों से परिणत आत्मा में नहीं। इस प्रकार अनेकान्त को अनेक दृष्टिकोणों से समझा जा सकता है। 184 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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