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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्थात् जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं। इस विश्व में विद्यमान जीवादि पदार्थ हैं वे सभी अनेकान्त स्वरूप हैं। जो कोई पदार्थ अस्ति रूप है, वह प्रत्येक त्रैकालिक होने के साथ-साथ अर्थ क्रियाकारी (अपना प्रयोजनभूत कार्य करे ऐसा) भी है। और वह पदार्थ अर्थक्रियाकारी तभी सम्भव है, जब उसे अनेकान्तात्मक स्वीकार किया जाए। ___अनेकान्त रूप सिद्धान्त का प्रयोजन मात्र इतना ही नहीं, बहुत विशद रूप से प्रसिद्ध है। प्रत्येक वस्तु जैसे तत् (वही) स्वरूप है, एक स्वरूप है, नित्य स्वरूप है, अस्ति स्वरूप है, वैसे ही वही वस्तु अतत् स्वरूप, अनेक स्वरूप, अनित्य स्वरूप और नास्ति स्वरूप भी है। आचार्य अमृतचन्द्र देव ने 'आत्मख्याति' टीका परिशिष्ट में कहा है जो तत् है, वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है तथा जो नित्य है वही अनित्य है। इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुपने को प्रकट करने वाली, तथा परस्पर दो विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना ही अनेकान्त कहलाता है। तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु में मात्र एक धर्म नहीं होता, उसमें अनन्त धर्म होते हैं, अनन्त धर्म से युक्त वस्तु ही अनेकान्तात्मक कहलाती है। किसी भी वस्तु, घटना, परिस्थिति या जीवन का मात्र एक ही पक्ष नहीं होता है वरन् अनेक पक्ष (पहलू) होते हैं, उन अनेक पक्षों का निषेध करते हुए यदि एक ही पक्ष से वस्तु, घटना, परिस्थिति या जीवन को देखें, स्वीकार करें तो एकान्त हो जाता है। जब तक समग्र दृष्टि से वस्तुओं का निरीक्षण नहीं होता, तब तक उन वस्तुओं, घटनाओं आदि से भलीभाँति परिचित नहीं हो सकते। __वस्तु से भलीभाँति परिचित होने के लिए वस्तु के सर्वांगीण स्वरूप अर्थात् समस्त पहलुओं से वस्तु को समझना होगा। यही वैशिष्ट्य अनेकान्त रूप विशिष्ट सिद्धान्त का प्रतिपाद्य है। धर्माराधना कर के मोक्ष रूप फल प्राप्ति के लिए तो अनेकान्त को समझना जरूरी है ही। अरे! लौकिक कार्य साधने के लिए भी पग-पग पर अनेकान्त को स्वीकार करना पडता है। और लोक में हम अनेकान्तात्मक व्यवस्था से बहुत अच्छी तरह परिचित भी हैं। सर्वत्र प्रयोग भी करते रहते हैं। उदाहरण के लिए-एक व्यक्ति भाई भी है, पिता भी है, पुत्र भी है, पति भी है, दामाद, साला, भानजा, भतीजा आदि परस्पर विरुद्ध प्रतीत लक्षणों वाला भी है। प्रश्न स्वाभाविक है कि एक ही व्यक्ति पिता भी हो और पुत्र भी हो, यह कैसे सम्भव है? अनेकान्त :: 183 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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