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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्मत षट्द्रव्यों में मात्र कालद्रव्य को ही 'अस्तिकाय' नहीं माना गया है, क्योंकि वह एक- प्रदेशी है, बहु- प्रदेशी नहीं है । इनका विवेचन निम्नानुसार है— 1. जीवास्तिकाय - जीवद्रव्य को जैनदर्शन में प्रदेशों की संख्या की अपेक्षा 'बहुप्रदेशी' माना गया है। अतः इसकी 'अस्तिकाय' संज्ञा अन्वर्थक है । जीव के प्रदेशों की संख्या 'असंख्यात' मानी गयी है। चूँकि जीव के प्रदेशों में 'संकोच - विस्तार' नामक शक्ति है, जिसके बल से वह चींटी - जैसे छोटे शरीर के आकार से लेकर बड़े से बड़े शरीर के आकार में स्वयं को व्यवस्थित कर लेता है। यहाँ तक कि 'समुद्घात' की स्थिति में कभी-कभी यह लोकाकाश के बराबर भी फैल जाता है; अतः लोकाकाश के असंख्यात प्रदेशों के अनुपात में जीव असंख्यात - प्रदेशी माना गया है T संसार - अवस्था में जीव को 'स्वदेहपरिमाण' अर्थात् जिस शरीर में रहे, उसी के आकार वाला माना गया है तथा 'मुक्त अवस्था' या 'सिद्धअवस्था' में उसे चरमशरीर सेकिञ्चिद्न्यून आकार वाला माना गया है। अभिप्राय यह है कि जिस अन्तिम शरीर से मुक्त होकर जीव सिद्ध-अवस्था प्राप्त करता है, उसी अन्तिम शरीर से कुछ - कम आकार में वह सिद्ध-दशा में विद्यमान रहता है । वह अन्तिम - शरीर छोटे या बड़े जिस भी आकार का हो, उसी के अनुपात में वह जीव सिद्ध-अवस्था में रहता है । 'अन्तिम शरीर से कुछ-कम आकार वाला' कहने से यह अभिप्राय है कि शरीर के नख, केश, भौंहें, पलकों के बाल, रोम व चर्म की ऊपरी सतह आदि क्षेत्रों में आत्मा व्याप्त नहीं होता है, अतः इतने आकार से न्यून होने के कारण सिद्ध-अवस्था में जीव का आकार ' अन्तिम शरीर से कुछ - कम' कहा गया है। चूँकि सिद्ध होने की सामर्थ्य जैनदर्शन में चारों गतियों के जीवों में से मात्र मनुष्य को मानी गयी है, अतः सिद्धों का आकार मनुष्य के शरीर के अनुरूप ही होता है तथा मनुष्यों के शरीर के आकार भी कालक्रम से छोटे-बड़े होते हैं; अत: सिद्धों के आकार भी जैनदर्शन में अन्तिम शरीर के परिमाण के अनुरूप छोटे या बड़े माने गये हैं। आकार भले ही छोटे या बड़े हों, परन्तु प्रदेशों की संख्या सभी के समान रूप से असंख्यात ही मानी गयी है। संकोच - विस्तार - शक्ति के कारण ही वे छोटे या बड़े शरीर के आकार में व्यवस्थित रहते हैं, न कि प्रदेशों की संख्या कम या ज्यादा होने ः अस्तिकायत्व की दृष्टि से सभी जीव समान रूप से असंख्यात - प्रदेशी से बहु- प्रदेश हैं । अतः सभी जीव 'अस्तिकाय' के नाम से जाने जाने के योग्य हैं। 2. पुद्गल-अस्तिकाय — पुद्गलद्रव्य का शुद्ध स्वरूप तो 'परमाणु' है, जो पूर्णत: अविभाज्य है और 'प्रदेश' का माप भी है” अतः वह एक प्रदेशी है, और इसी कारण अपनी परिशुद्ध-अवस्था में पुद्गलद्रव्य अस्तिकाय नहीं है, किन्तु पुद्गल - परमाणु अपनी परिशुद्ध-अवस्था में रहता नहीं है, वह अनेक पुद्गल - परमाणुओं की संयुक्त-अवस्था तत्त्व - मीमांसा :: 153 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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