SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org तत्त्व-मीमांसा Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रो. सुदीप कुमार जैन जैन- दर्शन में तत्त्वों का चिन्तन अनूठा है। इसमें यद्यपि सात तत्त्व माने गये हैं, फिर भी वे सातों तत्त्व दो मूल तत्त्वों की कोटि में देखे गये हैं- 1. जीव 2. अजीव जिन्हें हम 'चेतन' और ' अचेतन' के रूप में भी कह सकते हैं । इन्हीं दो मूलतत्त्वों का विस्तार विभिन्न दृष्टियों से 'पाँच अस्तिकाय', 'छह द्रव्य', 'सात तत्त्व' एवं 'नव पदार्थ' के रूप में विवेचित हुआ है। अत: इन्हें हमें इनकी मूलदृष्टियों के साथ स्वतन्त्र लक्षणपूर्वक समझना होगा। पाँच अस्तिकाय 'अस्तिकाय' शब्द जैनदर्शन का अत्यन्त मौलिक शब्द है, जो अन्य किसी भी दर्शन में नहीं पाया जाता है। जब कि अन्य 'द्रव्य', 'तत्त्व', 'पदार्थ' आदि पदों का प्रयोग अन्य दर्शनों में भी प्राप्त होता है; भले ही सर्वत्र लक्षणदृष्टि से भेद है । अस्तु, इस समस्त पद में दो पदों का योग है, 'अस्ति' और 'काय' । इनमें ' अस्ति' विद्यमानार्थक 'अस्' धातु का वर्तमानकाल प्रथम पुरुष एकवचन का रूप है। जबकि 'काय' शब्द सामान्यतः 'देह' या 'शरीर' वाची होते हुए भी यहाँ 'बहुप्रदेशी' – इस विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार 'अस्तिकाय' पद का अर्थ हुआ 'बहुप्रदेशीसत्ता' । उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'अस्तिकाय' के वर्गीकरण के माध्यम से जैनदर्शन में वस्तुतत्त्व का आकार या क्षेत्र की दृष्टि से विवेचन प्रस्तुत किया गया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि सामान्यतः प्रत्येक वस्तु का विवेचन चार मुख्य दृष्टियों से दार्शनिक जगत में किया जाता है - 1. द्रव्य, 2. क्षेत्र, 3. काल, 4. भाव। इनमें से क्षेत्र की दृष्टि से जैनदर्शन में जो वस्तुतत्त्व का विवेचन है, उसे 'अस्तिकाय' संज्ञा दी गयी है । इस दृष्टि से मौलिकता एवं वरीयता देने के लिए ही आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचत्थिकायसारसंगहो' ('पञ्चास्तिकाय - सार-संग्रह) नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना की है। जैसा उक्त ग्रन्थ के नामकरण में ही सूचित है कि जैनदर्शन में अस्तिकायों की संख्या पाँच मानी गयी है— जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश जैनदर्शन 152 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy