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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir में ही रहता है, जिसे 'स्कन्ध' कहा गया है। ये स्कन्ध छोटे-बड़े विभिन्न आकारों के होते हैं । चूँकि सभी स्कन्ध 'बहु- प्रदेशी' ही होते है; अतः स्कन्ध-अवस्था में ही पुद्गल - द्रव्य को 'अस्तिकाय' माना गया है । चूँकि पुद्गल - द्रव्य संख्या - अपेक्षा अनन्तानन्त माने गये हैं, अतः स्कन्धों के आकार के अनुपात में कोई स्कन्ध संख्यातप्रदेशी है, कोई असंख्यातप्रदेशी है और कोई महास्कन्ध अनन्तप्रदेशी भी माना गया है। इस प्रकार शुद्ध-अवस्था में पुद्गलपरमाणु एक- प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं है; किन्तु संयोगी - अवस्था में स्कन्ध रूप में बहु- प्रदेशी होने से उसे उपचार से अस्तिकाय माना गया है। 3. धर्मास्तिकाय - चूँकि धर्मद्रव्य लोकाकाश प्रमाण है, अतः बहु- प्रदेशी होने के कारण वह स्वरूपतः ही अस्तिकाय है । 4. अधर्मास्तिकाय - अधर्म द्रव्य भी धर्मद्रव्य की ही भाँति लोकाकाश-प्रमाण असंख्यात - प्रदेशी' होने से उसी के समान 'अस्तिकाय' संज्ञा को चरितार्थ करता है । 5. आकाश- अस्तिकाय - आकाश द्रव्य स्वरूपतः अखण्ड व अनन्त - प्रदेशी है, कहा भी है- " आकाशस्यानन्ता: " – (तत्त्वार्थसूत्र 5 / 9), फिर भी जितने आकाश- क्षेत्र में जीव- पुद्गलादि द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोकाकाश संज्ञा दी गयी है, और अवशिष्ट आकाश द्रव्य को अलोकाकाश कहा गया है। अतः वस्तुतः भिन्न नहीं होने से आकाशद्रव्य 'बहु- प्रदेशी' भी है, और 'अस्तिकाय' संज्ञा का अधिकारी भी है। यदि भेद दृष्टि को भी प्रधान करें, तो 'लोकाकाश' एवं 'अलोकाकाश' - दोनों ही बहु- प्रदेशी हैं, अतः दोनों ही ' अस्तिकाय' हैं। चूँकि कालद्रव्य का स्वरूप ही आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित होने रूप माना गया है । अतः प्रत्येक कालाणु एक प्रदेशी है, इसलिए वह अस्तिकाय' संज्ञा की अर्हता धारण नहीं करता है तथा पुद्गल परमाणुओं की भाँति काला परस्पर संघटित भी नहीं होते हैं, अतः उनकी 'स्कन्ध' - जैसी अवस्था सम्भव नहीं है । इसीलिए कभी भी कालद्रव्य को 'अस्तिकाय' उपचार से भी नहीं कहा जा सकता है। षड्द्रव्य-मीमांसा भारतीय दर्शनों में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग सर्वत्र मिलता है; किन्तु उसके लक्षण सर्वत्र समान नहीं हैं। जैन - परम्परा में बड़ी विशेषता यह है कि उसकी दो प्रमुख धाराओं - 'दिगम्बर' एवं 'श्वेताम्बर' में अन्य कई बिन्दुओं पर परस्पर मत - वैविध्य मिलता है; किन्तु 'द्रव्य' के स्वरूप के विषय में उन दोनों धाराओं के स्वर सर्वत्र 154 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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