SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : ३ : गृहस्थ-धर्म ( २ ) जिन्होंने भव्य जनों को सागार और अनगार धर्मका उपदेश दिया है उन जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार करके हम श्रावक धर्मका प्ररूपण करते हैं ॥ १ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषोधोपवास, सचित-त्याग, रात्रि भोजन त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भस्याग, परिग्रह- त्याग, अनुमति-त्याग और उद्दिष्ट आहार त्याग, ये देशविरत श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ अर्थात् दर्जे हैं। जिसको सम्यक्त्व नहीं है उसके ये ग्यारह प्रतिमा नहीं होतीं । इस कारण मैं सम्यक्त्वका वर्णन करता हूँ, तुम सुनो || २ -- ३ || आप्त, आगम और तत्त्वों में शंका आदिक दोष रहित निर्मल श्रद्धान होनेको सम्यक्त्व जानना चाहिये ||४|| निःशङ्का, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना, ये सम्यक्त्वके आठ अंग हैं ||५|| संवेग, निवेग, निंदा, गर्दा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकंपा, ये सम्यक्त्वके आठ गुण होते हैं ॥ ६ ॥ पदार्थों में श्रद्धान रखनेवाला जो कोई उपर्युक्त आठ गुणोंसे संयुक्त और चित्त होकर सम्यक्त्वको अंगीकार करता है वह सम्यकदृष्टि होता है ।। ७ ।। १. दर्शन 4 पांच उदंबरों और सात व्यसनों का जो कोई सम्यकदृष्टि त्याग करता है उसको दर्शन श्रावक कहते हैं । अर्थात् वह पहली प्रतिमाका धारी होता है ||८ ॥ गूलर, वड़, पीपल, पिलखन, और अंजीर, ये पांच फल तथा संघाणा, ( आचार ) और वृक्षों के फूल, इन सबमें सजीवोंकी निरंतर उत्पत्ति होती है । इसलिये ये सब त्यागने योग्य हैं ।। ९ ।। जुआ, शराब, मांस, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री, कुव्यसन दुर्गतिमें लेजानेवाले पाप हैं ।। १० ।। For Private And Personal Use Only ये सात २. व्रत पांच अणुव्रत, तीन गुणत्रत, चार शिक्षाव्रतोंको जो कोई पालता है वह दूसरी प्रतिमाका धारी है ॥ ११ ॥
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy