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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहस्थ-धर्म (२) जीवहिंसा, झूठ, चोरी, और अब्रह्मका स्थूलरूप त्याग और इच्छानुसार परिग्रहका परिमाण करना, ये पाँच अणुव्रत हैं ॥१२॥ पूर्व, उत्तर, दक्षिण, और पश्चिम दिशामें योजनका प्रमाण करके उससे बाहर जानेका त्याग करना प्रथम गुणवत अर्थात दिग्बत है ॥१३॥ जिस देशमें व्रतके भंग होने का कारण होता है उस देशमें जाने का नियमसे त्याग करना दूसग गुणव्रत अर्थात् देशव्रत है ।।१४।। लोहेका टुकडा, तलवार आदिक, लाठी, फांस अर्थात् मेख आदिक, इनको न बेचना, और झूठी तगजू , झूठे बाट, तथा क्रूर जानवरोंको न रखना, तीसरा गुणत्रत अर्थात् अनर्थदंड त्याग व्रत है ॥१५॥ शरीरको शोभा देनेवाले पदार्थ, तांबूल, सुगंध और पुष्प आदि का पारमाण करना भोगविरति नामक पहला शिक्षाव्रत है ।।१६।। अपनी शक्तिके अनुसार स्त्री. वस्त्र, आभरण आदिका परिमाण करना उपभोग निवृत्ति नामक दूसरा शिक्षाव्रत है ॥१७॥ आए हुए अतिथियोंको यथोचित रूपसे आहारादि दान देना अतिथि संविभाग नामक तीसरा शिक्षाव्रत है । अपने ही घरमें या जिनमंदिरमें रहकर और तीन प्रकारका आहार त्याग कर जो गुरुके पास भले प्रकार मन, बचन, कायसे आलो. चना करना है वह सलोखना नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है। ।।१८-१९।। ३. सामायिक शुद्ध होकर, अर्थात् स्नान आदिक करके, अपने घरमें, या चैत्य के सम्मुख स्थानमें, पूर्व दिशाकी ओर या उत्तर दिशाकी ओर मुख करके, कायोत्सर्ग मुद्रासे खड़े होकर जो कोई लाभ-हानि व शत्रु-मित्रको समता भाव से देखता है, तथा मनमें पंच नमोकार मंत्रका जाप करता हुआ सिद्धोंके स्वरूपका ध्यान करता है, अथवा संवेग ( वैराग्य भाव ) सहित धर्मध्यान या शुक्लध्यान करता है और इस अवस्थामें निश्चलांग होकर क्षणमात्र भी रहता है, वह उत्तम सामायिक व्रतका धारक है ।।२०-२२॥ ४. प्रोषधोपवास उत्तम, मध्यम और जघन्य, तीन प्रकारका प्रोषध उपवास कहा गया है। एक महीने के चारों पर्वमें ( अर्थात् दोनों पक्षोंकी अष्टमी चतुर्दशीको ) अपनी शक्तिके अनुसार उपवास करना चाहिये, यह उत्तम प्रोषधोपवास है। For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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