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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गृहस्थ-धर्म [१] ७७ देशावकाशिक दिग्व्रतमें जो दिशाओंमें गमनागमनका परिमाण ग्रहण किया है उसमें प्रतिदिन और भी अल्पप्रमाण निर्धारित करना दूसरा शिक्षाव्रत कहा गया है । इस व्रत का नाम देशावकासिक है जिसे सर्प विष न्यायके अनुसार हृदयकी शुद्धि सहित हितकारी जान प्रयत्नपूर्वक पालना चाहिये ।।३२-३३॥ [सर्प यदि अंगुली में काट खाये तो उसी अंगुर्लाको बांध देते हैं या काटकर अलग कर देते हैं जिससे उसका विष शेष शरीर में न फैले । इसी प्रकार असंयम की वृत्तिको सीमित कर अधिक कर्मबन्धन से बचना चाहिये। इसे सर्पविष-न्याय कहते हैं ।] [ आनयन प्रयोग, प्रेष्य प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेप, ये देशावकासिक व्रतके अतिचार हैं जिन्हें निवारण करना चाहिये ।।३२० ] प्रोषधोपवास आहार प्रोषध, शरीरसत्कार प्रोषध, ब्रह्मचर्य प्रोषध और अव्यापार प्रोषध, ये प्रोषधोपवास नामक तीसरे गुणवतके प्रकार हैं ॥ ३४ ।। अप्रत्यवेक्षित व दुष्प्रत्यवेक्षित शय्या और संस्तर तथा अप्रमार्जित व दुष्प्र. मार्जित उच्चारभूमिका निवारण करना चाहिये। उसी प्रकार इस प्रोषधोपवास व्रतमें विधिपूर्वक उद्यत होकर समस्त आहागदि प्रोषधोंमें भले प्रकार पालनके अभाव अर्थात् अतिचारका बचाव करना चाहिये ।। ३५-३६ ।। अतिथि-संविभाग न्यायोपार्जित व कल्पनीय अन्न आदि का देश, काल, श्रद्धा व सत्कार क्रम सहित परम भक्तिसे आज्ञा व अनुग्रह बद्धि पूर्वक संयतोंको दान देना, इसे जिन भगवान्ने गृहस्थों का अन्तिम शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कहा है ॥३७-३८॥ इस प्रकार यहां श्रमणोपासक अर्थात् गृहस्थधर्ममें अणुव्रत, गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत तथा उनके आनुषंगिक अन्य व्रतोंका कथन किया ।।३९।। पुष्पोंसे वासित तिलोंका तैल भी सुगंधित होता है। वीतराग आहेतोंने इसी उपमासहित बोधि अर्थात् ज्ञानका प्ररूपण किया है। (अर्थात् जैसे पुष्पोंसे वासित तिलोका तेल सुगंधित होता है, उसी प्रकार जैनधर्मके अभ्याससे जीवों में उत्तम भाव उत्पन्न होते हैं, जिनके फल स्वरूप उन्हें सम्यगज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥४०॥ [हरिभद्रसूरिकृत श्रावकप्रज्ञप्ति ] For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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