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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७६ तत्त्व-समुच्चय दिव्रत ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग् दिशाओं में ( गमनागमनका ) प्रमाण करना, यह भगवान् महावीरने श्रावकधर्मका प्रथम गुणव्रत कहा है ॥२२॥ [ ऊपर नीचे व तिरछी दिशाओं में गृहीत प्रमाणका अतिक्रम, तथा क्षेत्रवृद्धि व विस्मरण ये इस व्रतके अत'चार हैं जिनसे बचना चाहिये ॥२८३।।। ] भोगोपभोग परिमाण उपभोग-परिभोगका परिमाण करना इसे दूसरा गुणवत जानना चाहिये । इस व्रतके कर लेनेसे नियमके अभावमें जो व्यापक दोष उत्पन्न होते हैं वे नहीं होते, यह इसका गुणभाव है ॥२३॥ सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार तथा अपक्व, दुष्पक्व व तुच्छ औषधियों का भक्षण, इन अतीचारोंका अच्छी तरह निवारण करना चाहिये ।।२४।। अनर्थदण्डव्रत अंगार, वन, शकट, भाडा व स्फोटन सम्बन्धी काम तथा दांत, लाख, रस, केश व विष सम्बन्धी व्यापार, एवं यंत्रपीडन, निलाछन, दावाग्मि सम्बन्धी कर्म, सरोवर, द्रह व तालाबका शोषण व असतीपोषण, इन सबका निवारण करना चाहिये ॥२५-२६॥ ___तीसरा गुणव्रत अनर्थदण्डवत है, जो अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और पापोपदेश रूपसे चार प्रकारका है ॥२७॥ जीव सप्रयोजन आचरणसे उतना कर्मबंध नहीं करता जितना अनर्थ आचरणसे करता है । सप्रयोजन क्रियासे थोड़ा और निष्प्रयोजन क्रिया से बहुत कर्म बंधता है, क्योंकि, सप्रयोजन कार्यमें कालादि नियामक होते हैं, किन्तु अनर्थ कार्यमें तो कुछ नियामकता है ही नहीं ॥२८॥ कंदर्प ( रागोद्दीपक परिहास ) कौत्कुच्य (विकारोत्पादक वचन और अंगचेष्टा ), मौखर्य ( निरर्थक निर्लज बकवाद ), संयुक्ताधिकरण (हिंसाके उपकरणों का संयोग) तथा उपभोग-परिभोगातिरेक ( आवश्यकतासे अधिक विलासकी सामग्री एकत्र करना ) ये अनर्थदंडव्रतके अतिचार हैं जिनका निवारण करना चाहिये ॥२९॥ सामायिक शिक्षावतामें प्रथम व्रत सामायिक है जिसे पापक्रियाओं के परित्याग व निष्पाप योगके आसेवन रूप जानना चाहिये ॥३०॥ सामायिक करते समय श्रावक श्रमणके ही समान हो जाता है, इसलिये सामायिक अनेक बार करने योग्य है ॥३१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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