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तत्त्व-समुच्चय
दिव्रत ऊर्ध्व, अधः और तिर्यग् दिशाओं में ( गमनागमनका ) प्रमाण करना, यह भगवान् महावीरने श्रावकधर्मका प्रथम गुणव्रत कहा है ॥२२॥
[ ऊपर नीचे व तिरछी दिशाओं में गृहीत प्रमाणका अतिक्रम, तथा क्षेत्रवृद्धि व विस्मरण ये इस व्रतके अत'चार हैं जिनसे बचना चाहिये ॥२८३।।। ]
भोगोपभोग परिमाण उपभोग-परिभोगका परिमाण करना इसे दूसरा गुणवत जानना चाहिये । इस व्रतके कर लेनेसे नियमके अभावमें जो व्यापक दोष उत्पन्न होते हैं वे नहीं होते, यह इसका गुणभाव है ॥२३॥
सचित्ताहार, सचित्तप्रतिबद्धाहार तथा अपक्व, दुष्पक्व व तुच्छ औषधियों का भक्षण, इन अतीचारोंका अच्छी तरह निवारण करना चाहिये ।।२४।।
अनर्थदण्डव्रत अंगार, वन, शकट, भाडा व स्फोटन सम्बन्धी काम तथा दांत, लाख, रस, केश व विष सम्बन्धी व्यापार, एवं यंत्रपीडन, निलाछन, दावाग्मि सम्बन्धी कर्म, सरोवर, द्रह व तालाबका शोषण व असतीपोषण, इन सबका निवारण करना चाहिये ॥२५-२६॥ ___तीसरा गुणव्रत अनर्थदण्डवत है, जो अपध्यान, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान और पापोपदेश रूपसे चार प्रकारका है ॥२७॥ जीव सप्रयोजन आचरणसे उतना कर्मबंध नहीं करता जितना अनर्थ आचरणसे करता है । सप्रयोजन क्रियासे थोड़ा और निष्प्रयोजन क्रिया से बहुत कर्म बंधता है, क्योंकि, सप्रयोजन कार्यमें कालादि नियामक होते हैं, किन्तु अनर्थ कार्यमें तो कुछ नियामकता है ही नहीं ॥२८॥ कंदर्प ( रागोद्दीपक परिहास ) कौत्कुच्य (विकारोत्पादक वचन और अंगचेष्टा ), मौखर्य ( निरर्थक निर्लज बकवाद ), संयुक्ताधिकरण (हिंसाके उपकरणों का संयोग) तथा उपभोग-परिभोगातिरेक ( आवश्यकतासे अधिक विलासकी सामग्री एकत्र करना ) ये अनर्थदंडव्रतके अतिचार हैं जिनका निवारण करना चाहिये ॥२९॥
सामायिक शिक्षावतामें प्रथम व्रत सामायिक है जिसे पापक्रियाओं के परित्याग व निष्पाप योगके आसेवन रूप जानना चाहिये ॥३०॥ सामायिक करते समय श्रावक श्रमणके ही समान हो जाता है, इसलिये सामायिक अनेक बार करने योग्य है ॥३१॥
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