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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७० तत्त्व समुच्चय गंगा हिमवान् पर्वत के मध्यमें पूर्व-पश्चिम लंबा पद्मद्रह है। इसकी पूर्व दिशेसा गंगा नदी निकलती है ।।३४॥ सिंधु पद्म-द्रहके पश्चिमद्वारसे सिन्धु नदी निकलती है, और चौदह हजार नदियों के परिवार सहित समुद्र में प्रवेश करती है ॥३५॥ खण्ड -६ गंगा नदी सिंधु नदी, और विजयार्द्ध पर्वतसे भरतक्षेत्रके जो छह खण्ड हो गये हैं, उनके विभाग बतलाते हैं ॥३६॥ __उत्तर और दक्षिण भरत क्षेत्रमेंसे प्रत्येकके तीन तीन खण्ड है। इनमेसे दक्षिण भरतके तीन खण्डोंमें से मध्यका आर्यखण्ड है ॥३७॥ भरतक्षेत्रके आर्यखण्डमें काल के विभाग ये हैं- यहां पृथक पृथक् अव. सर्पिणी और उत्सर्पिणीरूप दो प्रकारके काल परिवर्तन होते हैं ॥३८॥ काल-६ अवपिणी और उत्सर्पिणी दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल होता है। तथा उनमेसे प्रत्येकके छह भेद हैं-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और अतिदुष्मा । इनमेंसे प्रथम सुषम-सुषम कालमें नियमसे परस्त्रीरमण और परधन-हरण नहीं होता ।।३९-४०॥ तान कोडाकोडी सागरोपमप्रमाण सुषमा नामक कालमें पहिले कालकी अपेक्षा उत्सेध (ऊँचाई), आयु, बल, ऋद्धि और तेज इत्यादिक उत्तरोत्तर हीन होते जाते हैं ॥४१॥ उत्सेधादिकके क्षी ग होनेपर सुषमदुषमा काल प्रवेश करता है। उस कालमें नारियाँ अप्सराओं के समान और पुरुष देवोंके समान होते हैं ।।४ २।। कुलकर-१४ प्रतिश्रुतिको आदि लेकर नाभिरायपर्यंत अर्थात् प्रातिश्रुति, सन्मति, शेमकर, क्षेमंधर, सीमकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान् , यशस्वी, आभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेवे, प्रसेनजित् और नाभिराय, ये चौदह मनु पूर्वभवमें विदेह क्षेत्र के भीतर महाकुलों में राजकुमार थे ॥४३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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