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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar लोक-स्वरूप अवेयक-९ कल्पातीतों में अधस्तन-अधस्तन अधस्तन-मध्यम, अधस्तन-उपरिम, मध्यम अघस्तन, मध्यम-मध्यम, मध्यम-उपरिम, उपरिम-अधस्तन, उपरिम-मध्यम और उपरिम-उपरिम, ये नौ ग्रैवेयक विमान हैं ॥२३-२४॥ सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रकके पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर दिशामें क्रमशः विजयंत, वैजयंत, जयंत और अपराजित नामक विमान हैं ॥२५॥ *नुष्य लोक प्रमाण स्थित तनुवातके उपरिम भागमें सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं, किन्तु अधातन भागमें कोई विसदृश भी होते हैं ॥२६॥ जितना मार्ग जाने योग्य है उतना जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक पृथक् चावलसे रहित भुषके अभ्यन्तर आकाशके सदृश स्थित होते जाते हैं ॥२७॥ शुद्धोपयोगसे उप्तन्न अर्हन्त और सिद्ध जीवों को अतिशय, आत्मोत्थ, विषयातीत, अनुपम, अनन्त, और विच्छेद रहित सुख प्राप्त होता है ॥२८॥ जम्बूद्वीप मनुष्य-क्षेत्रके ठीक बीचमें एक लाख योजन विस्तारवाला सदृश गोल और जम्बूद्वीप नामसे प्रसिद्ध द्वीप है ॥२९॥ ___ इस जम्बूद्वीप के बीच में सात प्रकार के श्रेष्ठ जनपद हैं और इन जनपदों के अन्तरालमें छह कुलाचल शोभायमान हैं ॥३०॥ क्षेत्र-७ दक्षिण दिशासे लेकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, और ऐरावत, ये सात क्षेत्र हैं, जो कुल पर्वतोंसे विभक्त हैं ॥३१॥ पर्वत-६ हिमवान, महाहिमवान् , निषध, नील, सक्मि, और शिखरी, ये छह कुल पर्वत मूल में और ऊपर समान विस्तार से युक्त तथा पूर्वापार समुद्रोंसे संलम हैं ॥३२॥ भरतक्षेत्र भरत क्षेत्रके ठीक बीचमें रजतमय और नाना प्रकार के उत्तम रत्नोंसे रमणीय विजयाई नामका उन्नत पर्वत है ॥३३॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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