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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ६८ www.kobatirth.org , रत्नप्रभा आदिक पृथिवियोंमें क्रममे तीस लाख पच्चीस लाख, पन्द्रद्द लाख, दश लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख और केवल पाँच ही नारकियोंके बिल हैं ॥ ११ ॥ चंद्र, सूर्य, ग्रह, पाँच समूह हैं । ये छूते हैं । ॥ १४ ॥ तत्त्व- समुच्चय जो मद्यपीते हैं, मांसके लालसी हैं, जीवोंका घात करते हैं, और मृगयामें तृप्त होते हैं, वे क्षणमात्र के सुखके दिये पाप उत्पन्न करते हैं और नरक में अनन्त दुख पाते हैं ॥ १२ ॥ जो जवि लोभ, क्रोध, भय, अथवा मोहके कारण असत्य वचन बोलते हैं, वे निरंतर भयको उत्पन्न करनेवाले, महान् कष्टकारक, और अत्यंत भयानक नरकर्मे पड़ते हैं || १३ ॥ को कहते हैं ॥ १५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक एक चन्द्रके अट्ठाईस ज्योतिषीदेव - ५ नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे, इस प्रकार ज्योतिषी देवोंके ज्योतिषी देव लोक के अन्त में घनोदधि वातवलयको नक्षत्र - २८ नक्षत्र होते हैं। यहां क्रम से उनके नामों कृतिका, रोहिणी, मृगशीर्षा, आर्द्रा, पुनर्वणु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित्, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्व-भाद्रपदा, उत्तर-भाद्रपदा, रेवती, अश्विनी और भरणी ये उन नक्षत्रों के नाम हैं ।। १६-१८ ॥ वर्ग - १२ कोई आचार्य बारह कल्प और कोई सोलह कल्प बतलाते हैं । कल्पातीत पटल तीन प्रकार कहे गये हैं ॥ १९ ॥ सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रहा, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, इस प्रकार ये बारह कल्प हैं | || २० ॥ स्वर्ग - १६ सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापि, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, और अच्युत नामक, इस प्रकार कोई आचार्य सोलह कल्प मानते हैं ॥। २१-२२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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