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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : १ : लोक-स्वरूप Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भव्यजनों को आनन्दित करनेवाले ' त्रिलोकप्रज्ञप्ति ' शास्त्रको मैं अतिशय भक्तिले प्रसन्न किये गये श्रेष्ठ गुरुके चरणों के प्रभावसे कहता हूँ ||१२|| अनन्तानन्त अलोकाकाशके ठीक मध्य में यह लोकाकाश जीवादि पाँच द्रव्योंसे भरा हुआ और जगश्रेणिके घन प्रमाण है || २ || यह लोक आदि और अन्तसे राहत है, प्रकृति से ही उत्पन्न हुआ है, जीव एवं अजीव द्रव्योंसे समृद्ध है और इसे सर्वज्ञ भगवानने देखा है || ३ || जितने आकाशमें धर्म और अधर्म द्रव्यके निमित्त से होनेवाली जीव और पुलों की गति एवं स्थिति हो, उसे लोकाकाश समझना चाहिये ||४|| लोक-३ इनमें से अधोलोकका आकार स्वभावसे वेत्रासन के सदृश, लोकका आकार खड़े किए हुए मृदंग के अर्ध-भाग के समान है ||५|| ऊर्ध्वलोकका आकार खड़े किये हुए मृदंग के सदृश है । तीनों लोकोंके संस्थानको कहते हैं ||६|| और मध्य अब इन अधोलोकी ऊँचाई क्रमसे सात राजू, मध्यलोककी ऊँचाई एक लाख योजन और उर्ध्वलोक की ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है ॥ ७ ॥ नरक - ७ इन तीनों लोकों में से अर्धमृदंगाकार अधोलोक में रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमःप्रभा, ये सात पृथिवियाँ एक एक राजूके अन्तरालसे हैं ॥ ८ ॥ For Private And Personal Use Only धर्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी, ये उपर्युक्त पृथिवियोंके गोत्रनाम हैं । ॥ ९ ॥ सब पृथिवियोंमें नारकियों के बिल चौरासी लाख हैं । अब प्रत्येक पृथिवीका आश्रय करके उन बिलोंके प्रमाणका निरूपण करते हैं । ॥ १० ॥
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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