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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अभिजित् ( अभिजी) - नक्षत्र १-१८ अभिनन्दन (अहिणंदण ) -चौथे तीर्थकर १-४७ अमन ( अमणो) - जीवअसंज्ञी १२-६३ अमनोज्ञ-सम्प्रयोग ( अमगुणणसंपओग) - आध्यान का भेद १३-७ अमूहद्रष्टि ( अमूढदिट्टी ) -- सम्यक्त्व का चौथा अंग ३-५ अमृति ( अमुत्ति) - १-२ अमूर्तिक (अमुति) - ९-१० अयोगकेवली ( अजोगी) - चौदहवां गुणस्थान, ११-३, ११-२८ अर ( अर ) -- १८ वें तीर्थकर १-४८: - ७ वें चक्रवर्ती १-५० अरति परीपह - ८-१४, १५ अरिष्टा ( अरिठ्ठा) पांचवीं पृथ्वी का गोत्र नाम १-९ अर्हत ( अरिहंत ) – मंगलाचरण १, ३, ४, ५ अलाभ परीषह ८-३०, ३१ अलोकाश ( अलोयायास ) - आकाश का वह भाग जिसमें अन्य द्रव्यों का __ अभाव है १-२; ९-१४ अवग्रह ( अवनइ ) - आभिनिबोधिक मतिज्ञान का भेद १२ - ३० अवधि अज्ञान - ९-५ अवधिज्ञान (ओही ) - ९-५; १२-३३ अवधिज्ञान आ० ( ओहीणाण ) - ज्ञानावरण कर्म का एक भेद १० -४ अवधिदर्शन ( ओही दंसण ) ९-४; १२-३९ - आवरण - दर्शनावरण कर्म का भेद १०-६ अवन्तिसुत (अवंतिसुद ) - पालक राजा, निर्वाण के दिन राज्याभिषेक १-७१ अवसर्पिणी ( अबसप्पिणिं ) - कल्पकाल का यह अर्धभाग जिसमें जीवों के शरीर परिमाण, आयु, यल, ऋद्धि व तेजादि का उत्तरोत्तर ह्रास होता है १-३८ अवाय (अवाय ) - मतिज्ञान का भेद १२-३१।। अविरत सम्यक्त्व ( अविरद सम्म) - चौथा गुणस्थान ११-१० अविरति ( अविरदि ) संयम का अभाव, पाँच प्रकार की ९-२३ अव्यापार प्रोषध ( अवावारा पोषहो ) - प्रोषधोपवास का भेद २-६४ अशरण ( असरण ) - भावना ७ -२ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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