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श्रावक और मुनि का आचार
धार्मिक सिद्धान्त के भीतर प्रायः आचार और दर्शन इन दो शास्त्रों को समावेश किया जाता है। जैन आचार की मूलभित्ति है ' अहिंसा । इसी कारण यहां अहिंसा का अति सूक्ष्म विवेचन किया गया है। हिंसा केवल किसी जीव का घात करने या उसे चोट पहुंचाने से ही नहीं होती, किन्तु किसी प्रकार व किसी भी अल्पात्यल्प मात्रा में उसे हानि पहुंचाने या उसका विचार मात्र करने से भी होती है। यह अहिंसक भावना केवल मनुष्य के प्रति ही नहीं, किन्तु छोटे से छोटे जोव के प्रति भी रखने योग्य बतलाई गई है। मन से, वचन से व काय से कृत, कारित व अनुमोदित हिंसा पाप रूप है । जैन शास्त्रों में धार्मिक जीवन की यही एक सर्वोपरि कसोटी मानी गई है। सभ्य पुरुष वही है जिस के हृदय में प्राणिमात्र के प्रति हिंसा का भाव न हो। यह तो है अहिंसा का निषेधात्मक रूप । उस का विधानात्मक स्वरूप पाया जाता है प्राणिमात्र के प्रति मंत्री व परोपकार भाव रखने में। 'परोपकारः पुण्याय, पापाय परसोंडनम्' व 'अहिंसापरमो धर्म:' जैन आचार के मूल मंत्र है।
इस अहिंसात्मक वृत्ति को जीवन में उतारने के लिये पांच प्रतों का विधान किया गया है-अहिंसा, अमषा, अचौर्य, अमैथुन और अपरिग्रह । यदि हम समाज के संघर्ष व सभ्य संसार के दण्ड-विधान का विश्लेषण करके देखें तो हम पायेंगे कि मनुष्य-कृत समस्त अपराधों का मूल या तो किमी जोव को चोट पहुंचाना है, या किसी दूसरे की वस्तु को छोन लेना, या किसी स्वार्थवश झर बोलना. या दुराचार करना अथवा अमर्यादित धन संचय करने की प्रवृत्ति में है। उपर्युक्त पांच व्रतों का प्रतिपादन इन्हीं समाजगत मूल दोषों को दष्टि में रखकर किया गया है। गृहस्थ श्रावक इनका पालन स्थूल रूप से ही कर सकता है, इसलिये उक्त पांचों व्रतों का विधान श्रावकाचार में अणुव्रतों' के रूप में पाया जाता है। शेष गुणवतों व शिक्षावतों का उपदेश इन्हीं मूल व्रतों के परिपालन योग्य मनोवृत्ति तैयार करने व त्याग वृत्ति बढ़ाने के हेतु किया गया है। यह कार्य क्रमशः ही होकर जीवन का स्थायी अंग बन सकता है। इसीलिये श्रावक को ग्यारह प्रतिमाओं व सीढ़ियों का प्रतिपादन किया गया है।
श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का विधिवत् अभ्यास हो जाने पर ही अनगार वृत्ति अर्थात् मुनि आचार का ग्रहण हो सकता है। जब तक लेशमात्र भी परिग्रह है --संसार की सचित्त व अचित्त सृष्टि में आसक्ति है-तब तक भुनिवृत्ति का पालन होना अशक्य है। मुनि-धर्म, में पूर्वोक्त पांच व्रतों को 'महाव्रत के रूप में पालन करना पड़ता है। यहां साधक को अहिंसात्मक वृत्ति एवं स्व-पर कल्याण बद्धि उसकी परम सीमा पर पहुंच जाती है। वह धर्मसावन के योग्य अपने शरीर को बनाये रखने के लिये समाज से शुद्ध आहार मात्र को भिक्षा लेता है, और अपना सारा समय व शक्ति आत्मकल्याण और विश्व-हित के चिन्तन, परिरक्षण और प्रवर्तन में लगाता है। मुनि के समस्त मूल और उत्तर गुणों का अभिप्राय उसे क्रमशः पुर्णत : अनासक्त वीतराग और ज्ञानी बनाना है। यही उसकी मुक्ति और सिद्धि है ।
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