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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन दर्शन यह आचार जिस दर्शन शास्त्र के ऊपर अवलम्बित है वह जैन धर्म के सात तत्त्वों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इन तत्त्वों का सार इस प्रकार है :.. संसार के मूल द्रव्य दो है-जीव और अजीव । स्व और पर का बोध अर्थात चेतना और ज्ञान, अथवा दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग का होना जीव का मुख्य लक्षण है। व्यवहार में जहां स्पर्शादि इन्द्रियां, मन, वचन व काय की प्रवृत्तियां, श्वासोच्छवास तथा आयु अर्थात् जीवन-काल की मर्यादा पाई जाती है वहां जीव का सद्भाव मानना योग्य है। ऐसे जीव संसार में अनन्त है। अजीव द्रव्य मूर्तिक व अमतिक रूप से दो प्रकार का है। मूर्तिक द्रव्य को पुद्गल कहते हैं जिसमें नाना प्रकार के वर्ण, रस, गन्ध, व स्पर्श रूप गुण पाये जाते हैं । पुद्गल का छोटे से छोटा रूप परमाणु है और बड़े से बड़ा महास्कंध रूप पृथ्वी आदि । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु सब इसी पुद्गल द्रव्य के पर्याय हैं। अमूर्त जीवों के शरीर भी पुद्गल परमाणुओं से ही बनते हैं । अमूर्तिक अजीव द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश और काल है। आकाश को हम सब जानते हैं। यही वह द्रव्य है जो शेष सब द्रव्यों को रहने के लिये अवकाश प्रदान करता है । यह आकाश भी अनन्त है । किन्तु इसका वह भाग परिमित है जिसमें जीव व पुद्गलादि द्रव्य निवास करते हैं और जिसे लोकाकाश' कहते हैं। जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों से रहित अनन्त आकाश अलीकाकाश है । लोकाकाश अनन्त जीवों और पुद्गलों अर्थात् मूर्त द्रव्य से भरा हआ तो है ही । साथ ही वह तीन अन्य द्रव्यों से व्याप्त है । जिस द्रव्य के कारण लोकाकाश में जीवों और पुद्गलों का गमनागमन सम्भव है वह द्रव्य कहलाता है 'धर्म' और जिस द्रव्य के कारण उनका स्थिर रहना सम्भव है वह द्रव्य कहलाता है 'अधर्म' । इन द्रव्य-वाचक धर्म और अधर्म शब्दों को कर्तव्य और अकर्तव्य बोधक शब्दों के अर्थ में समझने की भ्रान्ति नहीं करना चाहिये । सूर्य रश्मियां या विद्युत् लहरियां जिस द्रव्य के द्वारा प्रवाहित होती है वह 'ईथर' जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार धर्म द्रव्य ही है। काल को हम सब जानते हैं। उस से पदार्थों की वर्तना को भी हम मापते हैं। इसे भी लोकाकाश भर में व्याप्त एक स्वतंत्र द्रव्य माना है जिसके प्रत्येक लोकाकाश प्रदेश पर एक एक अणु के विद्यमान होने से ही पदार्थो में विपरिवर्तन होता रहता है, और कोई पदार्थ लगातार एक रूप नही रहने पाता। बौद्ध दर्शन में जिसे पदार्थों का क्षणिकत्व कहा है वह जैन दर्शनानुसार इसी काल द्रव्य का कर्तृत्व है। हम ऊपर कह आये है कि पुद्गल द्रव्य का मूक्ष्मतम रूप हमें परमाणु में दिखाई देता है। इन परमाणुओं की नाना प्रकार सूक्ष्म रचना होती है जिसे ' वर्गणा' कहते हैं। इन्हीं में एक कार्मण वर्गणा भी है। कार्मण वर्गणात्मक परमाणुओं के जीव-प्रदेशों के साथ सम्पर्क में आने को ही 'आस्रव । कहते हैं। उस समय यदि जीव के मन, वचत व काय में राग-द्वेषात्मक विकार रहा तो इस कामण वर्गणा का जीव-प्रदेशों के साथ 'बन्ध' हो जाता है जिसे प्रदेश-बन्ध कहते हैं। यही बन्ध भावों के अनुसार ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के रूप में For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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