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प्राकृत कहलाई महाराष्ट्रो। इन भाषाओं में परस्पर उच्चारण आदि शंबंधी केवल थोड़े से भेद थे, जैसा कि एक ही भाषा को भिन्न देशीय व भिन्न कालीम बोलियों में पाये जाते हैं। मगध और शरसेन के सीमा प्रदेश में प्रचलित भाषा का नाम अर्धमागधी था, क्योंकि, जैसा कि सीमाप्रदेशों में हआ करता है, उक्त भाषा में दोनों प्रदेशों की बोलियों की विशेषताओं का मिश्रण पाया जाता था। कहा जाता है कि महावीर भगवान् का उपदेश भी अर्धमागधी भाषा में होता था जिसे दोनों प्रदेशों के लोग भलीभांति समझ लेते थे। मागधी भाषा के विशेष तीन लक्षण थे--(१) 'र' के स्थान पर सर्वत्र 'ल' का उच्चारण । (२) श, ष और स के स्थान पर सर्वत्र 'श' का उच्चारण । (३) अकारान्त संज्ञाओं के कर्ताकारक एक वचन का प्रत्यय 'ए जैसे संस्कृत का 'नर:' मागधी में होगा 'णले'। (पुरुषः' का मागधी रूप होगा 'पुलिशे' । इत्यादि । शौरसेनी प्राकृत में 'र' का उच्चारण 'र' ही होता है । श, ष और स के स्थान पर सर्वत्र 'स' आता है, तथा कर्ताकारक एकवचन में 'ए' न होकर 'ओ' होता है। जैसे 'गरो' 'पुरिसो' आदि । इन लक्षणों में से आगमों की भाषा में शौरसेनी का 'स' और मागधी का 'ए' भी पाया जाता है और शौरसेनी का 'ओ' भी ; तथा 'र' का 'ल' क्वचित् दृष्टिगोचर होता है।
क्रमश: कुछ आगमों पर नियुक्ति' 'चूणि' 'टीका' व 'भाष्य' नामक विवरण ग्रंथ रचे गये जो भिन्न भिन्न समय के हैं और भाषा व साहित्य तथा इतिहास व संस्कृति की दृष्टि से रोचक और महत्वपूर्ण हैं । आगमों पर संस्कृत टोकाएं लगभग आठवीं शताब्दी से पूर्व की नहीं पाई जाती । हरिभद्रसुरि की टीकाएं संस्कृत में सबसे प्राचीन मानी जाती है। सैद्धान्तिक साहित्य ____ सिद्धान्त की दृष्टि से प्राकृत भाषा के प्रकाशित साहित्य में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भीतर विशेषतः जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यक भाष्य एवं चन्द्रषि महत्तर तथा अन्य आचार्यों कृत छह कर्मग्रंथ बड़ी महत्त्वपूर्ण रचनाएं है। उसी प्रकार आचार की दृष्टि से मुनि आचार के लिये कल्पसूत्र, व श्रावकाचार के लिये हरिभद्रकृत श्रावक-प्रज्ञप्ति उल्लेखनीय हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में उपर्युक्त कर्मप्राभत व कषायप्राभत और उनकी टोकाओं के अतिरिक्त नेमिचन्द्र आचार्यकृत गोम्मटसार (जीवकाण्ड व कर्मकाण्ड) लब्धिसार, क्षपणासार व द्रव्यसंग्रह ग्रंथ जैन सिद्धान्त का सुव्यवस्थित प्रतिपादन करने के लिये सुविख्यात हैं। उसी प्रकार
लोक्य के स्वरूप का वर्णन यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णति व नेमिचन्द्र कृत त्रिलोकसार में परिपूर्णता से पाया जाता है। मुनि आचार के लिये शिवार्यकृत भगवती आराधना और बट्टकर कृत मूलाचार, तथा श्रावकाचार के लिये वसुनन्दि कृत श्रावकाचार सुप्रसिद्ध है। जैन स्यावाद व नयवाद के लिये, देवसेनकृत नयचक उल्लेखनीय है। इन के अतिरिक्त कुन्दकुन्दाचार्य रचित समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, बारस अणुवेक्खा और अष्ट पाहुड ग्रंथ तथा स्वामी कार्तिकेय कृत अनप्रेक्षा विशेषतः जैन अध्यात्म के प्रतिपादन के लिये सुप्रसिद्ध है। यह समस्त प्राकृत साहित्य प्रायः विक्रम की प्रथम सहस्राब्दि के भीतर का रचा हुआ है ।
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