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तत्त्व-समुच्चय
शुद्ध रूपसे नय दो ही हैं, निश्चय और व्यवहार । तथा वस्तुके अस्तित्व द्रव्यत्व आदि उत्कृष्ट स्वरूपको बोध करानेवाला एक निश्चय नय ही है ॥२०॥
जो भाव जिस वस्तुका कहा गया है, वह प्रधानतया तो द्रव्य रूप ही है। इसलिये वही भाव ध्येय कहा गया है जो परमभावग्राही निश्चय नयका विषय है ॥२१॥
तत्त्वाका अन्वेषण करनेके कालमें इस नय विषयक न्यायशास्त्रको युक्तिपूर्वक समझ लेना चाहिये, क्योंकि अभ्यास कालमें वस्तुके स्वरूपका साक्षात् अनुभव नहीं होता (उसका जो कुछ ज्ञान होता है वह श्रुतके ही आधारसे होता है) ॥२२॥
वस्तुके अन्य धर्मोकी अपेक्षा न करते हुए एकान्त रूपसे एक धर्मका ग्रहण करने मात्रसे नाना धर्मसंयुक्त द्रव्यका यथार्थ ज्ञान सिद्ध नहीं होता । यथार्थ शान तो अनेकान्त द्वारा ही होता है । अतएव ‘स्यात्' शब्द द्वारा प्रकट किये जानेवाले अनेकान्तको अच्छी तरह समझ लीजिये ॥२३॥
[देवसेनकृत नयचक्र]
२४५.२६७
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