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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar स्याद्वाद रूपसे उसका अनुकरण करता ही है। अतएव सब वस्तुओंके स्वभाव-कथनमें इस सापेक्षत्वको स्यात्' शब्दके द्वारा अवश्य साधना चाहिये ।। १३॥ धर्मी अर्थात् द्रव्य धर्मस्वभाव अर्थात् गुणात्मक-नाना गुणों के समूह रूपहोता है। और वे अनेक धर्म अपने अपने एक एक स्वरूपसे उस द्रव्यमें रहते हुए भी परस्पर एक दूसरेसे भिन्न हैं । अतः उनको उनके गौण व मुख्य मावसे जानना चाहिये । अर्थात् जब किसी एक धर्मपर ध्यान दिया जाता है तो वही धर्म मुख्य हो जाता है और दूसरे सब धर्म गौण हो जाते हैं ॥१४॥ वस्तु-स्वरूपके कथनमें जो अनेक नयों का अवलम्बन लिया जाता है उनमें से प्रत्येकमें जब स्यात् शब्द जोडा जाता है तभी वे नय द्रव्यके स्वभावको यथार्थ रूपसे प्रकट करते हैं। जब नय व प्रमाण शुद्ध होते हैं तभी वे युक्ति रूप होते हैं । और युक्तिके विना तत्त्वका निरूपण नहीं होता ।।१५॥ तत्त्व देय और उपादेय दोनों प्रकार का होता है। इनमेंसे परद्रव्य तो निश्चयतः हेय ही कहा गया है। किन्तु स्वद्रव्य भी नयों के अनुसार हेय या उपादेय जानना चाहिये ॥१६॥ एकान्त, विपरीत आदि मिथ्या ज्ञानसे युक्त तथा रागद्वेषादि वृत्तियों सहित आत्मरूप भी नियमसे त्यागने योग्य है । इससे विपरीत अर्थात् शुद्धज्ञानमय वीतराग आत्मा ध्यान करने योग्य है, ऐसा सिद्धिके अभिलाषी जीवको जानना चाहिये ।।१७।। जिस नयके द्वारा एक वस्तु के अनेक धर्मों में 'स्यात्' शब्दके प्रयोग से भेदका उपचार किया जाता है वह 'व्यवहारनय' कहा गया है। तथा इसके विपरीत जिस नयमें वस्तुके असली स्वरूपपर दृष्टि रखकर अभेद स्थापित किया जाता है वह 'निश्चयनय' है ॥१८॥ निश्चयनयके अनुसार जो एकरूप और ध्येयरूप है वही व्यवहारनयके अनुसार अन्यप्रकार अर्थात् न नारूप और अध्येय कहा गया है। निश्चय नयानुसार निज आत्मा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीन गुणों के कारण सिद्धरूप ही है तथा ध्यवहार नयानुसार संसारी आत्मा अपने रागादि विभावों के कारण सिद्ध नहीं है। संसारी और सिद्ध जीव पृथक् पृथक् हैं ।।१९॥ . द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक व व्यवहार ये तीन नय भूतार्थ अर्थात् वस्तु स्वरूप को प्रकट करनेवाले हैं। अन्य अनेक नय व्यवहारानुसार कहे गए हैं। किन्तु For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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