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: १४ : स्याद्वाद
जो जीवादिक द्रव्यसमूह नाना प्रकारके भावोंसे संयुक्त कहे गये हैं, उनके स्पकरण हेतु प्रमाण और नय के लक्षण भी बतलाये गये हैं ॥१॥
द्रव्यके समस्त स्वभावोंमें सबसे अधिक व्यापक स्वभाव अस्तित्व है, क्योंकि सभी द्रव्योंमें ‘अस्ति' अर्थात् भावात्मक सत्ता पाई जाती है और 'अस्तित्व' गुण समस्त भावात्मक पदार्थों में विद्यमान है ||२||
इस प्रकार जो द्रव्य सत्तारूप है वह प्रमाणका विषय है, अर्थात् उसकी पूरी जानकारी प्रमाण द्वारा प्राप्त होती है । इसी प्रमाण ज्ञानका एक अंश नय कहलाता है, और नयकी यह आंशिक ज्ञानात्मकता शब्दों में 'स्यात्' वचनके द्वारा प्रकट की जाती है ॥ ३ ॥
किसी भी द्रव्यका ज्ञान सामान्य व विशेष रूप होता है, और इन दो प्रकारके ज्ञानोंमें कोई विरोध नहीं है । पदार्थोंकी यह द्विरूपकता और उनमें अविरोध की सिद्धि सम्यक्त्व अर्थात् शुद्वदृष्टि द्वाराही हो सकती है । सम्यक्त्वले विपरीत मिथ्यादृष्टि द्वारा यह सिद्धि नहीं हो सकती ||४||
यह सयग्दृष्टि अपेक्षा वाचक 'स्यात्' शब्दोंके द्वारा प्रकट होती है। जहां इसका प्रयोग नहीं किया जाता वहां अपेक्षा रहित एकान्तरूप वचन होनेसे मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है । अतएव सामान्य और विशेष, इन दोनों का विषय 'स्यात्' शब्दके प्रयोग द्वारा समझना चाहिये । अर्थात् जब किसी वस्तुके विषय में कोई विशेष बात कही जाय तब 'स्यात्' शब्द के द्वारा यह भी प्रकट कर देना उचित है कि उस वस्तुका वह स्वरूप एक अपेक्षा विशेषसे है, तथा उस वस्तु में अन्य सामान्य गुण भी हैं ॥५॥
वस्तु के गुण-धर्म चाहे नयविषयक हों और चाहे प्रमाणाविषयक, किन्तु वे होते परस्पर सापेक्ष ही हैं। अतएव सापेक्षत्व ही तत्त्व है, और निरपेक्षता उसके विपरीत अर्थात् अतत्त्व है ॥ ६ ॥
यह जो 'स्थात्' शब्द है वह निपातनसे अर्थात् बिना किसी प्रकृति-प्रत्यय विवेक के. रूढ़िये ही वस्तुके विधि और निषेधात्मक स्वरूपको प्रकट करनेवाला माना गया है । अतएव यह शब्द वाक्यार्थ में सापेक्षताकी सिद्धि करता है || ७ ||
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